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जैनदर्शन में ईश्वर की अवधारणा
सौभाग्यमल जैन
जैनदर्शन में "ईश्वर" का कोई स्थान है या नहीं ? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है किन्तु इस प्रश्न पर कोई मत प्रतिपादित करने के पूर्व यह आवश्यक है कि "ईश्वर" शब्द से क्या तात्पर्य है ? इसका विश्लेषण किया जाय। वास्तव में ईश्वर भगवान्, परमेश्वर आदि पर्यायवाची शब्द हैं। एक संस्कृत के कवि ने "भगवान्" शब्द की व्याख्या करते हुए कहा
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य, यशसः भियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां "भग इतीरणा ॥
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तात्पर्य यह है कि "भग" शब्द में समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य, इन छह का समावेश होता है, इस प्रकार इन छह ऐश्वयों से युक्त को "भगवान्" कहा जा सकता है। यही भाव "ईश्वर" शब्द से है ऐश्वर्यवान् ( साहवे पौसाफ) को ईश्वर कहा जाता है। जिस प्रकार भौतिक ऐश्वर्य से सम्पन्न को "साहबे जायदाद" कहा जाता है इसी प्रकार श्रध्यात्मिक अथवा आधिदैविक ऐश्वर्य से युक्त को ईश्वर ( साहबे साफ ) कहा जा सकता है । विश्व में प्रचलित धर्मों में ईश्वरसम्बन्धी मान्यताओं का यदि हम विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होगा कि कुछ धर्मों में ईश्वर को रचयिता, नियामक माना जाता है, कुछ में उसे प्राणियों के भले-बुरे कर्मों का निर्णायक मानकर दण्डदाता या पुरस्कारदाता के रूप में माना जाता है या उसे दयालु मानकर क्षमादाता के रूप में चित्रित किया जाता है । कुछ में ईश्वर केवल साक्षी रूप माना जाता है। यदि हम वैदिककाल की मान्यता पर दृष्टिपात करें तो यह ज्ञात होगा कि उस काल में विश्व की प्रज्ञात प्राकृतिक शक्तियों (मानव समुदाय का उपकार करने वाली सहायता प्रदान करने वाली या भयानक सभी शक्तियों) में मानव ने "देवश्व" का धारोपण करके बहुदेववाद की स्थापना की हम देखते हैं कि उस काल में मानव को देवी- आपत्तियों का सामना करना पड़ता था, वैज्ञानिक प्राविष्कार नहीं हुए थे, प्रकृति के रहस्यों से वह वाकिफ नहीं था। इस कारण इस प्रकार की शक्ति में देवत्व की कल्पना मानव समाज की सहज स्फुरित भावना का प्रतीक है। जैसे-जैसे मानव का वैचारिक स्तर उन्नत हुमा वैसे-वैसे उसने एक ब्रह्म की कल्पना की उसी को जगत् का मूलाधार माना। समस्त प्राणिजगत् उसी ब्रह्म का प्रतिरूप है। तात्पर्य यह है कि वैदिक परम्परा में द्वैतवाद तथा अद्वैतवाद के निरूपण के साथ ब्रह्म और जीव के पृथक्त्व तथा एकरव की मान्यता प्रचलित हुई अद्वैतवाद के प्रवर्तक आचार्य शंकर ब्रह्म को निर्गुण तथा द्वैतवाद के प्रवर्तक प्राचार्य मध्व ब्रह्म को सगुण मानते हैं ।
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यह एक संयोग की बात है कि विश्व के लगभग सभी धर्माचार्य एशिया में हुए जिनमें कुछ एकेश्वरवाद के हामी तथा कुछ बहुदेववाद के हामी थे। कुछ के निकट ईश्वर का स्वरूप निराकार तथा कुछ के निकट साकार स्वरूप था । जो धर्माचार्य ईश्वर अथवा भगवान् के
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