SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तूफ़ानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक परमात्मा को स्थापित करने के लिये उसे राग-द्वेष, छल-कपट एवं भेद-भाव आदि दोषों से कनस्तर के समान खाली करना पड़ेगा । अन्यथा उसमें परमात्मा नहीं रह सकता । तुमने प्राज इस अद्भुत रहस्य को मुझे समझा दिया । इसीलिये मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ और तुम्हें अपना गुरु मानता हूँ ।" मृत्युञ्जय आस्था बंधुनो ! अब आप भली-भाँति समझ गए होंगे कि धर्म के लक्षण क्या हैं ? वह किन कसौटियों पर कसा जाता है तथा उसका अस्तित्व कहाँ होता है ? यह जान लेने के बाद आवश्यक है कि मोक्षाभिलाषी साधक सम्यक् देव, गुरु एवं धर्म पर अपनी आस्था के दीपक को प्राणान्तक कष्ट आने तक भी प्रज्वलित रखे। दिव्य शक्तियों को जागृत कर सकता है । ग्रास्थावान् प्राणियों के तव-नियम सुट्टियाणं कल्लाणं जीवियंपि जीवंतज्जंति गुणा, मया पुणो सुग्गइं दृढ़ आस्था रखे तथा तभी वह अन्तर की लिये कहा भी है मरपि । अर्थात्-तप-नियमरूप धर्म में भलीभाँति स्थित जीवों का जीना और मरना, दोनों ही कल्याणकारी हैं । जीवित रहने पर वे गुणों का अर्जन करते हैं और मरने पर सद्गति को प्राप्त होते हैं । धर्म पर अविचलित आस्था को एक बौद्धकथा में बताया है --- महात्मा बुद्ध अपने पूर्व जन्म में किसी ग्राम के अधिपति के यहाँ पैदा हुए। उनका नाम धम्मपाल रखा गया । कुछ बड़े होने पर वे ज्ञानार्जन के लिये एक महाविद्यालय में भेजे गए जहाँ पाँच सौ छात्र एक प्राचार्य से विद्याभ्यास करते थे । जंति ॥ उन्हीं दिनों आचार्य के युवा पुत्र की मृत्यु हो गई । सम्पूर्ण आश्रम के निवासी शोकाकुल हो गए किन्तु धम्मपाल पूर्ण रूप से शांत और निराकुल रहा। यह देखकर अन्य छात्रों ने तिरस्कारपूर्वक कहा - " धम्मपाल ! श्राचार्य का युवा पुत्र मर गया, सब रो-पीट रहे हैं पर तुझे जरा भी दुःख नहीं है ?" धम्मपाल ने सहजभाव से उत्तर दिया- " बंधुनो ! तुम असत्य बोल रहे हो, बुद्ध होने से पहले कोई नहीं मर सकता ।" छात्र साश्चर्य बोले -" क्या तुम्हारी कुल परम्परा में कोई जवान नहीं मरता ?" "हाँ, अपनी कई पीढ़ियों का इतिहास तो मुझे मालूम है । उनमें कोई भी तरुणावस्था में नहीं मरा ।" Jain Education International समाहिकामे समणे नवस्सी जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है 67 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy