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________________ पंचम खण्ड / १४० विशुद्ध निर्लेप ब्रह्म-तत्त्व या प्रात्म-तत्त्व की ओर है। काम को धनुषधारी माना गया है। वह धनुष पर बाण चढ़ाकर सम्मुखीन जनों को विमोहित करता है। काम-तत्त्व में स्वसंवेदनगोचर समस्त जगत् धनुष स्थानीय है। उन्मादन, मोहन, संतापन, शोषण एवं मारण-ये काम के पांच बाण माने गए हैं । इन द्वारा काम पुरुष को काम्य में-प्रेयसी में तन्मय बना देता है, जिसे प्राप्त करने के लिए वह कामाहत पुरुष अत्यन्त याकुल हो उठता है । अध्यात्मयोगी स्वसंवेदनरूप धनुष पर निवेशित और क्षिप्त प्रति उज्ज्वल आत्म-परिणाम रूप बाणों के आघात या संस्पर्श से मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिए उन्मत्त, मोहित, संतप्त, पीड़ित और मत जैसा हो जाता है। जो भावों की तीव्रता कामानुप्रेरित पुरुष के मन में कामिनी को स्वायत्त करने की होती है, वैसी ही तीव्रता अध्यात्मयोगी के मन में प्रात्मलक्ष्मी को वशंगत करने की होती है। रति, सूत्रधार, वसन्त, सहकार, लता, भ्रमरी-निनाद, कोकिलकेका, मलयानिल, विरह, विप्रलब्धा, पाटल-पादपों का सौरभ-पराग, मालती-सूरभि इत्यादि समग्र कामोपकरणों का प्राध्यात्मिक प्रतीकों के रूप में सक्षम विश्लेषण प्राचार्य ने प्रस्तुत प्रसंग में किया है। साहित्यशास्त्र में इन्हें काम की सेना में परिगणित किया गया है। ये वे साधन हैं जो काम के उद्भव में उत्प्रेरक होते हैं। कामतत्त्व की परिकल्पना में एक सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक तथ्य का अनुप्राणन है। मनोविज्ञान मानता है कि काम-वासना नैसर्गिक है। उसमें सौन्दर्यानुप्राणित सुख की अनुभूति है। सौन्दर्य के प्रति इसीलिए सबसे सहज आकर्षण है, उससे परितोष मिलता है। साथ ही साथ मनोविज्ञान ऐसा भी स्वीकार करता है कि परितोष सुख या तुष्टि लेने की वृत्ति को मोड़ देकर सौन्दर्य से प्राप्त होने वाले सुख की अनुभूति यदि कोई दर्शन, साधना, सेवा या कला में करने लगे तो जीवन की एक स्वाभाविक क्षधा उधर परितोष पाने लगेगी और वह व्यक्ति कामात्मक सौन्दर्य को न छूता हुमा भी जीवन में परितुष्ट रह सकेगा, उसे कोई प्रभाव नहीं खलेगा । जो महान् त्यागी, संन्यासी, तपस्वी, भक्त, लोकसेवी या समर्पित कलाकार आदि हुए हैं, जिन्होंने सब कुछ भुलाकर अपने को कार्यों में उन्मत्त की तरह जोड़े रखा, वे इसी कोटि के पुरुष थे, जिनकी कामात्मक वत्ति की परितोषकता उन उन कार्यों में प्रति पाने लगी थी। मनोविज्ञान में इस वृत्ति को Sublimation कहा है। क्योंकि किसी भी वृत्ति को मिटाया नहीं जा सकता, उसकी दिशा को नया मोड़ दिया जा सकता है, उसका परिष्कार किया जा सकता है । वैसा किये बिना यदि वृत्ति के उच्छेद का प्रयास किया जाता है तो व्यक्ति गिर जाता है, असफल हो जाता है। काम-तत्त्व को परिकल्पना में समग्र कामात्मक उपकरणों को प्रतीक के रूप में सम्मुख रखकर तद्गत ऐहिक सुख को विवेक तथा अन्तर-अनुभूति पूर्वक प्रात्मरमण के सुख से जोड़ कर भोग की वृत्ति को परिष्कृत करने का या काम-प्रवाह से प्रात्म-प्रवाह में लाने का एक उपक्रम है। विवेचन और विश्लेषण की दृष्टि से यह सुन्दर और पाकर्षक अवश्य है, पर कुछ जटिल तथा दुरूह जैसा है, इसलिए प्राचार्य शुभचन्द्र ने किन्हीं की मान्यता के रूप में इसे उपस्थित तो किया है, पर वे नहीं मानते कि इससे कोई बहुत बड़ी बात बन जाय । यही बात पिछले दो तत्वों के साथ है। शिव-तत्त्व के सम्बन्ध में जो कहा गया है, वह तो वस्तुतः आत्मतत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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