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________________ जैन-योग का एक महान् ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १४१ को अधिगत करने के परम्पराप्राप्त साधनाक्रम में है ही, मात्र भिन्न नाम से उसे अभिहित किया जा सकता है, पर वैसी कोई पृथक् साधना की स्थिति वहां नहीं बनती। तत्त्वत्रय के विश्लेषण के पश्चात प्राचार्य शूभचन्द्र ने उससंहारात्मक रूप में कहा है इस संसार में शरीर-विशेष से समवेत जो भी कुछ सामर्थ्य हम प्राप्त करते हैं, वह निश्चित रूप से आत्मा का ही है। प्रात्मा की प्रवृत्ति-परम्परा से-अशुद्ध परिणामों से शरीर उत्पन्न हुअा है, आत्मा की संसारावस्था में वह सहचरित है, इसलिए सामर्थ्य-विशेष के साथ शरीर को भी जोड़ा जाता है, पर वास्तव में मूलतः वह सामर्थ्य शरीर का नहीं। अतः तत्त्व की परिकल्पना का भी सामर्थ्यात्मक दृष्टि से आत्मा में ही समावेश हो जाता है । चित्र-विचित्र चेष्टाएँ और उपक्रम प्रात्मा की अशुद्धावस्था की परिणतियां हैं।' बाईसवें सर्ग में मनोव्यापार के अवरोध, मन के वशीकरण या मनोजय के सम्बन्ध में प्राचार्य ने प्रकाश डाला है। साधक के लिए मन के अवरोध को उन्होंने बहुत आवश्यक बतलाया है, कहा है "जिन्होंने मन को रोक लिया, उन्होंने सबको रोक लिया अर्थात् मन को वश में करने का अभिप्राय है, सबको वश में करना। जिनका चित्त असंवत-अनिरुद्ध या अवशीभूत है, उनका अन्य इन्द्रियों को रोकना निरर्थक है। मन की शुद्धि से कलंक-दोष या विकार विलीन-विनष्ट हो जाता है, मन के समीभूतआत्म-स्वभाव में समन्वित होने पर स्वार्थ-जीवन के सही लक्ष्य की सिद्धि या प्राप्ति हो जाती है।" "एक मात्र मन का निरोध ही सब अभ्युदयों को सिद्ध करने वाला है। उसी का पालम्बन लेकर योगी तत्त्व-विनिश्चय को प्राप्त हुए।" मन के निरोध का मार्ग बताते हए प्राचार्य ने लिखा है "एक मेक बने स्व और पर को-आत्मा तथा देह प्रादि पर पदार्थों को पृथक्-पृथक अनुभव करता है, वह मन की चंचलता को पहले ही रोक लेता है।"४ १. तदेवं यदिह जगति शरीरविशेषसमवेतं किमपि सामर्थ्यमुपलभामहे तत्सकलमात्मन एवेति विनिश्चयः । प्रात्मप्रवत्तिपरंपरोत्पादित्वादविग्रहग्रहणस्येति । -ज्ञानार्णव २१.१७ और भी कहा है२. मनोरोधे भवेद्रद्धं विश्वमेव शरीरिभिः । प्रायोऽसंवतचित्तानां शेषरोधोऽप्यपार्थकः ।। कलंकविलयः साक्षान्मनः शुद्धयैव देहिनाम् । तस्मिन्नपि समीभूते स्वार्थ सिद्धिरुदाहृता ।। -ज्ञानार्णव २२. ६,७ एक एव मनोरोध: सर्वाभ्युदयसाधकः । यमेवालम्ब्य संप्राप्ता योगिनस्तत्त्वनिश्चयम ।। -ज्ञानार्णव २२.१२ ४. पृथक्करोति यो धीरः स्वपरावेकतां गतौ। स चापलं निगह णाति पूर्वमेवान्तरात्मनः ॥ -ज्ञानार्णव २२.१३ आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.ord
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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