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________________ द्वितीय खण्ड / १४८ बात मेरे प्रथम प्रसव के समय की है । उस समय मुझे कुछ ऊपरी बाधा हो गई थी । मैं बहुत ही घुटन महसूस करती । अनेक बार इस घुटन से मेरी चीख तक निकल जाती। कंधों और शरीर में असह्य वेदना होती। इसे मैं अपना परम सौभाग्य ही मानती हूँ कि सन् १९८४ के वर्ष में जानकीनगर, इन्दौर में महासतीजी . का चातुर्मास हा । मैंने महासतीजी के विषय में वहत कुछ सूना था। मेरी सास व मेरा भतीजा महासतीजी के मांगलिक का चमत्कारी प्रभाव देख चुके थे। इस कारण महासतीजी के प्रति मेरे मन में पर्याप्त श्रद्धा-भाव उत्पन्न हो गये थे। जब आप 'जैन भवन', जानकीनगर में चातुर्मासार्थ पधारे तब से मैं नियमित रूप से आपके दर्शन करने जाने लगी। आपका मांगलिक भी सुनने लगी। आपके मंगलवचन सुनने से मुझे आराम मिलने लगा। इसके बावजूद जो मूल शिकायत थी वह कभी-कभी उभर आती थी । इसी बीच चातुर्मास समाप्त हो गया और महासतीजी का बिहार भी हो गया। यह भी संयोग ही कहा जायेगा कि महासतीजी वर्ष १९८५ का चातुर्मास सम्पन्न कर पुनः इन्दौर पधारे और यह हमारे सौभाग्य की बात थी कि इस बार महासतीजी का मुकाम हमारे बंगले में ही रहा। इसका कारण यह था कि जैन भवन में तपस्विनी श्री श्री उम्मेदकंवरजी म. सा. की तपस्या के उपलक्ष में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला नेत्र-शिविर चल रहा था। घर बैठे गंगावतरण हो गया है । घर के कार्य से निवृत होकर अधिकाधिक समय महासतीजी की सेवा में व्यतीत करने लगी। आपकी सेवा में रहते मैं आपसे स्तोत्र सुनती रहती । आपके स्तोत्रपाठ से मेरी यह ऊपरी बाधा एकदम दूर हो गई और जो मैं घुटन का अनुभव करती थी, वह भी समाप्त हो गई। मैं बाधामुक्त होकर स्वस्थ हो गई। मेरे जीवन की दूसरी घटना उस समय घटित हुई जब महासतीजी ने खाचरौद चातुर्मास के लिये इन्दौर से बिहार कर दिया। उस दिन परिवार के सभी सदस्य घर से बाहर गये हुए थे । घर पर मैं और एक नौकर दो ही प्राणी थे । नौकर को एकाएक न जाने क्या सूझा कि उसने मुझे मारने के इरादे से मुझ पर प्रहार किया । मुझे न जाने कहाँ से एकाएक घर से बाहर भागने की प्रेरणा मिली । मैं कमरे से बाहर की ओर भागी और 'बचाओ बचायो !' जोर-जोर से चिल्लाने लगी। नौकर मुझे बराबर मारे जा रहा था व मेरे सिर से खून की धारा बह रही थी। उसने झपट्टा मारकर मेरे गले की सोने की चैन खींचने का प्रयास किया। इसी बीच मैं नीचे गिर पड़ी। उसने मेरा गला भी दबाने का प्रयास किया। चेन टी नहीं क्योंकि उसमें महासतीजी का चित्र था। मेरे पति श्री सागरमलजी बेताला उस समय कार्यवश बम्बई गये थे। मेरे चिल्लाने की आवाज सुनकर पासपड़ौस के व्यक्ति एकत्रित हो गये । नौकर घबरा कर भाग गया। थोड़ा स्वास्थ्य ठीक होते ही मैं महासतीजी की सेवा में खाचरौद पहुँची और उन्हें सारा किस्सा बताते हुए कहा कि यदि उस दिन चेन में आपकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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