SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1168
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग के षट्कर्म एवं रोग निवारण डॉ० बी० के० बान्द्रे, एम० ए०, पी-एच० डी० (योग) भारतीय ऋषि-मुनियों ने प्रकृति का अच्छा अध्ययन करके अनेक सहज एवं प्राकृतिक प्रयोगों का प्रचलन किया था और उससे असंख्य रोगों का उपचार भी संभव हा था। आजकल जितने चिकित्सालय, सुविधा एवं खोज हुई हैं उनके समय में नहीं थीं। फलस्वरूप वे लोग प्राकृतिक जीवन जीते हुए अपने रोगों का उपचार भी स्वयं किया करते थे। योग के षट्कर्म भी उस उद्देश्य से निर्मित कुछ प्रक्रियाएँ हैं जो प्राधनिक लोगों की दैनिक उपयोगिता में सहायक हो सकती हैं। षटकर्म का उपयोग आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सापद्धति में होता है। परन्तु योग की यह प्रारम्भिक प्रक्रिया मानी जाती है। षट्कर्म का निश्चित प्रारम्भ किसने किया, इसका अंदाज नहीं लगाया जा सकता किन्तु सर्वसाधारण व्यक्ति बिना विशेष साधन-साहित्य से अपने रोगों का उपचार षट्कर्मों द्वारा कर सकते हैं । षट्कर्म क्या हैं ? यह जानना आवश्यक है। छः कर्म या क्रियाएँ इसके अन्तर्गत पाती हैं । नेति, धौति, कपालभांति, त्राटक, कुजल क्रिया, बस्ती। यह छः क्रियाएँ षट्कर्मों के नाम से जानी जाती हैं। इन सबका अपना-अपना महत्त्व है। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुरूप एवं रोग को समझकर करना चाहिए। क्रियायें न समझ कर करने वालों को कष्ट उठाने पड़ते हैं। कुजलक्रिया या धौति—यह क्रिया पानी या वस्त्र की पट्टी से की जाती है। प्रातःकाल शौचादि के उपरान्त ३-४ ग्लास साधारण गरम पानी में १-२ छोटे चम्मच नमक डाल कर तुरन्त उस पानी को जल्दी से पी जाएँ और तुरंत गले में मध्यमा अंगुली चला कर उस पानी को बाहर निकाल दें। इसे कुंजलक्रिया कहते हैं। उसके आधे घंटे बाद कुछ खाने-पीने की वस्तुओं का सेवन करें। वस्त्र धौति से भी यह क्रिया संपन्न होती है। ४'x २२" लंबी पट्टी को गरम पानी में उबाल कर एवं एक सिरे से निगल कर दूसरे सिरे को बाहर खींच कर निकालने को वस्त्रधौति कहते हैं। कजलक्रिया एवं वस्त्रधौति का उपयोग रोगनिवारण में विशेषरूप से किया जाता है। दमा, कफ, पित्त के रोग के शमन के लिए कुजलक्रिया एवं वस्त्रधौति अत्यधिक उपयोगी है। माइग्रेन, सिर के दर्द में, आधाशीशी, अपच, कफ में कुजलक्रिया अवश्य करनी चाहिये । भोजन का अपच एवं कफ की अधिक शिकायत पर इसे अवश्य करें। गले को नाखन, अंगूठा, खरोंच से बचाने के लिए अधिक समय तक कुजलक्रिया में गले में अंगुली न चलावें । उच्च रक्तचाप, अल्सर की तीसरी अवस्था एवं भयंकर अन्य बीमारी में इसका उपयोग न करें। जलनेति क्रिया में नाक के एक छेद से पानी को डाल कर दूसरे छेद से निकालना एवं इससे विपरीत करते हैं। इसके लिए एक विशेष प्रकार के जलनेतिपात्र प्राप्त करना चाहिये । पात्र में सामान्य गरम पानी भर कर १/२ चम्मच नमक डालें एवं एक नासाग्र में यह पात्र लगाकर गर्दन को सामने की ओर झुकावें, मुह से श्वास लेते रहें। इसी प्रकार दूसरी तरफ से करें। जलनेति से नजला कम होकर श्वास-प्रश्वास अच्छी तरह होने । हा आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy