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________________ अर्चनार्चन Jain Education International पंचम खण्ड / १३२ सारा राजकाज समझा दिया और संभला दिया । स्वयं श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली। मुंज अपने भाई सिंहल के साथ आनन्दपूर्वक राज्य करने लगा । एक दिन का प्रसंग है, मुंज, सिंहल और सिंहल के दोनों राजकुमार सामन्तों सहित वनक्रीडा से नगर को लौट रहे थे। उन्होंने मार्ग में एक वर्षोद्धत तेली को खड़ा देखा। वह कन्धे पर कुदाल लिए हुए था। राजा मुंज को प्राश्चर्य हुआ पूछा- तुम इस तरह क्यों खड़े हो ? तेली बोला- मैंने एक अद्भुत विद्या साधी है उस विद्या के प्रभाव से मुझ में इतना बल है कि मुझे कोई पराजित नहीं कर सकता। तेली की बात राजा को बड़ी हास्यास्पद लगी। देखते ही देखते तेली ने एक लोहे का बड़ा दंदा जमीन में गाड़ दिया और वह बोला- महाराज ! श्रापके सामन्त और योद्धाओं में जिस किसी को अपनी शक्ति का गर्व हो, इसे उखाड़ दे । मुंज ने अपने सामन्तों की ओर दृष्टि डालो। एक एक कर सभी सामन्तों ने दंड को उखाड़ने का प्रयत्न किया, पर कोई सफल नहीं हो सका। यह देख सिहल से रहा नहीं गया वह स्वयं उठा और एक हाथ से झट से उस लोह- दंड को जमीन से उखाड़ डाला । उस दंड को उठाकर कहा- अब मैं इसे जमीन में गाड़ देता हूँ, कोई निकाले यों कह कर एक हाथ से उस लौहदंड को अविलम्ब जमीन में गहरा गाड़ दिया। जिसे अपने बल का अत्यधिक गर्व था, उस तेली ने दंड को उखाड़ने की बहुत चेष्टा की, पर उसे नहीं उखाड़ सका । दूसरे सामन्त भी उसे उखाड़ने में सफल नहीं हुए। दोनों सुकुमार राजकुमार शुभचन्द्र घोर भर्तृहरि अपने पितृव्य राजा मुंज के सम्मुख हाथ जोड़कर उपस्थित हुए और कहा - यदि श्राप प्रदेश करें तो इस लोहदंड को हम उखाड़ दें। राजा को, सामन्तों को बालकों की बात पर बड़ी हंसी श्राई । बालकों ने नहीं माना। अन्त में राजा ने आज्ञा दे दी । कुमारों ने अपनी चोटी के बालों का फन्दा बनाकर उसे लोहदंड में लगाया और एक ही झटके में दंड को उखाड़ फेंका। बालकों के पराक्रम की सर्वत्र प्रशंसा हुई । तेली अपना सा मुंह लेकर चलता बना । 1 राजा मुंज पहले तो प्रसन्न हुआ, फिर राज्य की तृष्णा ने उसके चिन्तन को एक विकृत मोड़ दिया । उसने सोचा, इन बालकों के बल का कोई पार नहीं है, कहीं मुझे राज्य - च्युत न कर दें। इन कांटों को भी साफ कर देना चाहिए। राजा ने मंत्री के समक्ष अपने विचार रखे। यह सुन मंत्री स्तंभित हो गया। राजा को इस कुकृत्य से विरत करने की बहुत चेष्टा की पर राजा न माना । अन्त में मंत्री ने स्वीकार किया कि वह उनकी इच्छा के अनुसार व्यवस्था करवा देगा। मंत्री ने बालकों की हत्या करवाने हेतु अपने मन पर बहुत जोर डाला, पर मन वैसी निर्दयता के लिए तैयार नहीं हुआ । असत् ने सत् से हार मानी । मंत्री ने राजकुमारों को सारी बात कही, गुप्त रूप में उज्जयिनी छोड़कर भाग जाने की राय दी। दोनों राजकुमार अपने पिता सिंहल के समक्ष उपस्थित हुए और अपने कर्त्तव्य के संबंध में मार्ग-दर्शन चाहा । सिंहल बड़े भाई मुंज के इन अमानवीय और नृशंस विचारों से उसे जित हो उठा और पुत्रों से कहा- ऐसे दुर्जन का अन्त कर देना चाहिए पर दोनों राजकुमार तस्व द्रष्टा थे । उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा- इस छोटे से जीवन के लिए ऐसा कुकृत्य कैसे करें ? उनके पाप स्वयं उन्हें खा जाएंगे। यदि हमारे द्वारा उनका हनन होगा, तो इसका दोष आप पर आएगा। हम दोनों इस घटना से इतने अन्तःप्रेरित हुए हैं कि हमारा मन इस मायामय संसार में रहने का नहीं है, हम अपने को साधना में लगा देना चाहते हैं। । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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