SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-योग और उसका वैशिष्ट्य | २४७ जबकि यह योग बन्धन के पाँच कारणों में से एक है। वस्तुतः जैन-योग के मुख्य स्तम्भ होते हैं--संवर और तप । संवर पाँच प्रकार का है-सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और प्रयोग और जैन मुक्तिमार्ग की ये ही भूमिकाएँ या सोपान हैं। ध्यान तप का ही एक प्रकार है--जिससे साधना का प्रादि, मध्य और अन्त-सभी परिव्याप्त है। उन्हीं का विवेचन जैनयोग का विवेचन है । संवर पाँच प्रकार के हैं क्योंकि बन्ध के कारण भी पांच प्रकार के हैं-मिथ्यात्व, अविशति, प्रमाद, कषाय तथा योग-यह बताया जा चका है। ये समस्त उपकरण प्रात्मा पर पड़े हुए प्रावरणीय कर्म के स्रोत हैं। संवर के पांचों प्रकारों से बंध के इन प्रकारों का संवरण किया जाता है और तदनन्तर प्रागत प्रावरणीय कर्मों की निर्जरा। तदनन्तर निरावरण स्वरूप-चैतन्य प्रतिष्ठित हो जाता है। तप के अंग ध्यान या प्रेक्षण से ध्येय विषय मात्र का साक्षात्कार होता है-फलतः दोषदर्शन से पराविरति और पराविरति से कषायक्षय होता है। जैन-योग-मार्ग का विवेचन करते हुए मुनि नथमलजी ने दो प्रश्न उठाए हैं-क्या जैनयोग में चक्रों का स्थान है ? क्या कुंडलिनी के सम्बन्ध में कोई चर्चा है। इन्होंने इन अनुत्तरित प्रश्नों का भी समाधान जैन वाङमय के साक्ष्य पर दिया है। उनका पक्ष है कि स्थल शरीर के भीतर तैजस और कर्म-ये द्विविध शरीर हैं और इनके भीतर मध्यम परिमाण आत्मा है। वह चिन्मय है। वह शरीर व्याप्त है । चैतन्य अजीव का प्रकाशक हैजैसे-जैसे आवरण क्षय होगा-प्रकाश वैसे-वैसे निरावृत होता जायेगा। शरीर का प्रत्येक अवयव प्रत्येक कोशिका में चैतन्यमय प्रकाशन की योग्यता है, पर कार्यकारी क्षमता के लिए कर्मात्मक आवरण का योग द्वारा क्षय करना होगा। सामान्यतः माना जाता है कि नाभि, हृदय, कण्ठ, नासाग्र, भृकुटि, तालु तथा सिर-ये चैतन्य केन्द्र हैं, इनका विकास ध्यान से होता है। मुनिजी के मत से हठयोग और तंत्रशास्त्र में इन्हीं को षट्चक्र कहा जाता है। इनके विकास से अवधिज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान होता है। ध्यान या प्रेक्षाकेन्द्र यदि सम्पूर्ण है तो सम्पूर्ण शरीर ही अतीन्द्रिय ज्ञान का कारण बन सकता है और यदि चैतन्यकेन्द्रों को ही प्रेक्षण का विषय बनाया जाय-तो मात्र वे ही कारण बन पाते हैं। पहला कठिन और दूसरा अपेक्षाकृत सरल । प्रेक्षा या ध्यान से एक और करण निष्पत्ति होती है और दूसरी ओर प्रावरणक्षय । जहाँ तक कुण्डलिनी का संबंध है मुनिराजजी का निष्कर्ष है कि वह तेजोलेश्या नाम से जैनशास्त्रों में संकेतित है। बात यह है कि हम चैतन्य और परमाणु पुदगल दोनों को साथ-साथ जी रहे हैं। पहले की शक्ति से दूसरा सक्रिय होता हैं और दूसरे के सक्रिय होने से पहले की उनके अनुरूप परिणति होती है । इस नियम के अनुसार तेजोलेश्या के दो रूप बनते हैं-भावात्मक और पुद्गलात्मक । इस प्रकार उनके अनुसार तेजोलेश्या चित्त की विशिष्ट परिणति या चित्तशक्ति है। उनके अनुसार प्रतीन्द्रियज्ञान का विकास ज्ञानावरण के विलय से होता है और उसकी अभिव्यक्ति तेजोलेश्या से होती है। मुनिजी का कहना है कि यदि कुंडलिनी (तेजोलेश्या) एक वास्तविकता है तो उसके अपलाप का सवाल ही नहीं उठता । यह बात दूसरी है कि यह नाम जैनपरम्परा के प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता पर तंत्रशास्त्र और हठयोग का पारस्परिक प्रभाव होने पर उत्तरवर्ती साहित्य में इसका प्रयोग भी मिलता है। प्रागम और उसके व्याख्या-साहित्य में कुण्डलिनो आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy