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________________ अर्चनार्वन Jain Education International. पंचम खण्ड / १३८ शिवतत्त्व शिवतत्व के परिवार में साधक का चिन्तन स्रोत मात्मा की शिवमयता एवं शिवंकरता को उद्दिष्टकर गतिमान होता है। आत्मा जो संसारावस्था में जीवात्मा कही जाती है, वहीं द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप सामग्री प्रान्तरिक बाह्यस्वरूप आदि अधिगत करती है। सुसंस्कार एवं सत्प्रयत्न के बल से उसे सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है, वह प्रतिशय वैशिष्ट्य प्राप्त करती है। फलतः क्रमशः मोह का अपगम होता है, शुक्लध्यान का उद्गम होता है, आत्मा के मूल गुणों का हनन करने वाले कर्म नष्ट होते हैं, अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आत्मा के ये चार गुण प्रकट होते हैं । इन गुणों का प्राकट्य आत्मा की वह दशा है, जो परमात्मा शब्द से पहचानी जाती है । यह ग्रात्मा का शिवमय स्वरूप है। सर्वथा सत्य सर्वया श्रेयोमय तथा श्रेयस्कर शिव प्राप्यायित एतन्मूलक स्वरूप का अनुचिन्तन, अनुशीलन, अनुस्मरण शिवतत्त्व की प्राराधना है । ' गरुड़तत्त्व भारतीय देववाद में गरुड़ का बड़ा महत्त्व है। वैसे गरुड़ एक पक्षी होता है, बहुत तीव्रगामी होता है उसे पुराण साहित्य में पक्षिराज कहा गया है तथा भगवान् विष्णु का यह वाहन माना गया है। वहां उसमें देवत्व की परिकल्पना की गई है। उसका स्वरूप मानव और पक्षी का मिला-जुला आकार लिए भारतीय चित्रकला में बहुत स्थानों पर अंकित हुआ है। भगवान् विष्णु के मन्दिरों में विष्णु को मूर्ति के ठीक सामने सभा मण्डल से बाहर एक चत्वर पर प्रणाम की मुद्रा में गरुड़ संस्थापित होता है । देव के रूप में प्रतिष्ठित गरुड़ का सारा शरीर मनुष्य के आकार का होता है, केवल मुख की प्राकृति गरुड़ की सी होती है। मुख पर चोंच होती है। दो पंख दोनों बाहुमूलों से निकलते हुए घुटनों तक लटकते हैं। कहीं-कहीं गरुड़ के मुंह में पकड़े हुए सर्प भी दिखाये जाते हैं । ध्यान के सन्दर्भ में गरुड़तत्त्व की जो परिकल्पना की गई है, वहाँ गरुड़ की चोंच में दो सर्प लटकते हुए माने गये हैं । चोंच में पकड़ा हुआ एक सर्प मस्तक पर होते हुए पीठ की पोर लटकता है, दूसरा उदर की पोर लटकता है। गरुड़ की देह में पांचों तत्त्वों की कल्पना की गई है। उसके घुटनों से नीचे पृथ्वी तत्व, घुटनों से ऊपर नाभि तक जल तत्त्व नाभि से हृदय तक अग्नि तत्व हृदय से मुख तक वायु तत्त्व का अस्तिव माना गया है। श्राकाश-तत्त्व में एतत्स्वरूपात्मक गरुड़ की परिस्थापना मानकर ध्यान करने का विधान किया गया है। कहा गया है, इससे सारे उपद्रव और विघ्न मिट जाते हैं। १. यथान्तर्बहिभूतनिज निजानन्दसन्दोहसंपाद्यमानद्रव्यादि चतुष्कसकलसामग्री स्वभावप्रभावापरिस्फुरितरत्नत्रयातिशयसमुल्लसितस्वशक्तिनिराकृतसकलतदा व रणप्रादुर्भूत शुक्लध्यानानलबहुलग्याला कलापक लित गहनान्तराला दिसकलजीवप्रदेशधनघटितसंसारकारणज्ञानावरणादिद्रव्यभावबन्धन विश्लेषस्ततो युगपत्प्रादुर्भूतानन्त चतुष्टयो घनपट विगमे सवितु: प्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् स खल्यमात्मैव परमात्मव्यपदेशभाग्भवती निशिवतत्वम् । -ज्ञानार्णव २१. १० "भाग" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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