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तृतीय खण्ड
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इतनी शक्ति नहीं है कि वे सदा के लिये उस जीव का भाग्य निश्चित कर दें। इसीलिये पाप व पुण्य दोनों को ही 'बेड़ियाँ' कहा गया है । ये दोनों ही जीव की मूक्ति में बाधक हैं।
विचारणीय बात यही है कि जब मनुष्य पाप और पुण्य रूपी कर्म-फलों पर विश्वास करता है और इनके कारण संसार में पुन: पूनः जन्म लेना पडेगा ऐसा मानता है, तभी वह प्रबल पुरुषार्थ करके पाप-कर्म और पुण्य-कर्म, दोनों से बचकर प्रात्मा को उन्नत करता हा मुक्ति के लिये प्रयत्नशील होता है। अगर उसे कर्म-फल पर विश्वास न हो तो कभी वह कुपथगामी होकर अधःस्वरूप को प्राप्त करेगा और कभी कुछ पुण्यों का उपार्जन करके स्वर्ग आदि का सुख भी कुछ समय के लिये पा लेगा, किन्तु परिभ्रमण उसे संसार में करते रहना पड़ेगा । इसलिये आवश्यक है कि मनुष्य कर्म-फल पर विश्वास रखता हुआ उनसे भयभीत रहे तथा अकर्म-स्थिति में पहुँचने का प्रयत्न करे, जहाँ पहुँचने पर पुन: कभी भी जन्म, जरा अथवा मरणादि का दुःख नहीं भोगना पड़ता। (३) सादा जीवन उच्च विचार
ये दोनों बातें भारतीय संस्कृति की अनुपम महान निधियाँ हैं। जीवन में जब सादगी होती है तो आवश्यकताएँ स्वयं ही कम हो जाती हैं और संग्रहवृत्ति का स्थान अपरिग्रह तथा त्याग की भावनाएँ ले लेती हैं। संस्कारी और सदाचारी व्यक्ति स्वयं कष्ट सहकर भी औरों को सुखी करने के लिये अपना धन, अन्न, यहाँ तक कि जीवन भी उत्सर्ग करने से नहीं चकता क्योंकि वह भली भाँति समझता है कि ये सब नाशवान हैं और कभी भी छुट सकते हैं। ऐसी स्थिति में परोपकार के लिये इन्हें स्वयं ही क्यों न छोड़ दिया जाय ।
किसी गाँव में एक किसान के घर गेहूँ की एक बोरी भरी हुई थी, फिर भी वह भूखा रहता था, उसने बोरी में से एक दाना भी नहीं निकाला । गाँव वाले उसे महाकंजस कहकर थ-थ करते हुए उसका उपहास करते रहे। आखिर भूखे पेट शरीर कब तक चलता, किसान मर गया।
कोई वारिस न होने से उसका जो कुछ था उसे लेने के लिये राज्य-कर्मचारी आए। जब उन्होंने गेहूं की बोरी को हटाया तो उसके नीचे रखा हुआ एक पत्र मिला। उसमें लिखा था- "इस अकाल के समय में अगर मैं इस बोरी का गेहूं खा जाता तो गांव के किसी किसान को अगली फसल के लिये बीज प्राप्त नहीं होता क्योंकि भूख के कारण किसी के पास अन्न नहीं बचा है । मेरा शरीर खुराक न मिलने से नष्ट हो रहा है, पर मेरी इच्छा है कि इस बोरी का गेहँ किसानों में बीज के लिये वितरित कर दिया जाय ताकि फसल होने से अनेकों का जीवन सुख से यापन हो।"
किसान की त्याग-सद्भावना, करुणा और स्नेह की भावना को जानकर उसकी निंदा
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