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सम्पूर्ण संस्कृतियों को सिरमौर-भारतीय संस्कृति
कहा गया है-'किसी भी प्राणी, किसी भी भूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्व को न मारना चाहिये, न उनपर अनुचित शासन करना चाहिये, न पराधीन बनाना चाहिये, न उन्हें परिताप देना चाहिये और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिये।'
दूसरे सूत्र में इसका कारण बताते हुए संबोधन दिया है कि-'जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है; जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है, तथा जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह भी तू ही है।
वस्तुतः स्वरूपदृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं-यह समता भावना ही अहिंसा का मूल आधार है तथा 'अहिंसामूलक' समता ही धर्म का सार है। हमारी संस्कृति धर्म से आप्लावित है अतः इसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना है। (२) पुनर्जन्म तथा कर्म-फल पर विश्वास
यह भारतीय संस्कृति की दूसरी विशेषता है। इसके अनुसार प्रत्येक प्रात्मा सभी जीवधारियों के स्वरूपों में जन्म ले सकती है। अभी बताई हई भावना का कि-'मेरी जैसी ही आत्मा सबकी है और सबकी जैसी ही मेरी आत्मा है' इसका कारण भी है तथा परिणाम भी। इससे यह भी ज्ञात होता है कि-मेरी आत्मा की अवस्था भूतकाल में अन्य जीवों-जैसी हुई है और भविष्य में भी हो सकती है।' और यह कि-'सभी जीव किसी न किसी समय मेरे माता-पिता और अन्य संबंधी रहे हैं और रह सकते हैं।' यही बात विद्वद्वर्य पं. शोभाचन्द्र जी 'भारिल्ल' ने अपनी कृति में सुन्दर ढंग से समझाई है
एक जन्म की पुत्री मरकर है पत्नी बन जाती फिर आगामी भव में माता बनकर पैर पुजाती। पिता पुत्र के रूप जन्मता, बैरी बनता भाई, पुत्र त्यागकर देह कभी बन जाता सगा जमाई । देवराज स्वर्गीय सुखों को त्याग कीट होता है, विपुल राज्य से भूपति पल में हाय ! हाथ धोता है। गोबर का कीड़ा स्वर्गों के दिव्य सौख्य पाता है,
अपना ही शुभ अशुभ कृत्य यह अजब रंग लाता है।
कहने का अभिप्राय यही है कि पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म पर विश्वास होने से अन्य प्राणियों के प्रति समानता एवं प्रेम-भाव दृढ़ होता है। दूसरे यह भी ज्ञात होता है कि जीव की कोई भी अवस्था या योनि शाश्वत नहीं है। हिन्दू धर्म के अनुसार परलोक में न अनन्तकालीन स्वर्ग ही है और न ही नरक । जीव के किसी भी जन्म अथवा कई जन्मों के पुण्य या पाप में
समाहिकामे समणे तवस्सी * जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।"
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