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सम्पूर्ण संस्कृतियों को सिरमौर-भारतीय संस्कृति
करने वालों की आँखें खुल गईं और उस दिवंगत महान् आत्मा के लिये प्रेमाश्रु बहा चलीं । वस्तुतः हमारी संस्कृति औरों के लिये अपना सब कुछ और आवश्यकता होने पर शरीर भी उत्सर्ग कर देने की प्रेरणा देती है। ऐसे उच्च विचार ही हमारी महान् संस्कृति के सुनहरे आभूषण हैं।
एक बार कलकत्ता-स्टेशन पर एक युवक कुली को खोज रहा था। उसने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को, जो कि बिल्कुल साधारण वस्त्रों में थे, कुली समझकर उनके सिर पर शीघ्रतापूर्वक सामान रख दिया। विद्यासागर चुपचाप सामान लेकर स्टेशन से बाहर आ गए। जब युवक उन्हें पैसे देने लगा तो उन्हें पहचान कर अत्यन्त लज्जित हया और उनके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगते हुए बोला
आपके साधारण वस्त्रों के कारण मैं भ्रम में पड़ गया था, कृपया माफ़ करें।" ईश्वरचन्द्र ने उसे उठाकर हृदय से लगाते हुए कहा "भाई ! मुझे तनिक भी क्रोध नहीं है, किन्तु तुम इस बात को कभी मत भूलना कि मनुष्य का महत्त्व बहुमूल्य वस्त्रों से अथवा बाह्य प्रदर्शन से नहीं बढ़ता, अपितु प्रांतरिक गुणों से और बहुमूल्य बिचारों से बढ़ता है।" नवयुवक ने विद्यासागर के उपदेश को आत्मसात किया और उन्हें पुनः नमस्कार करके चला गया। (४) आत्मा के अभ्युत्थान एवं मुक्ति की कामना
हमारी संस्कृति में आत्म-शुद्धि और आत्म-मुक्ति जीवन का सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य है। इसीलिये इस संस्कृति में धर्म प्रत्येक विचार तथा प्रत्येक क्रिया में निहित रहता है। भारतवर्ष सदा से एक धर्म-प्रधान देश के रूप में जाना जाता रहा है और भारतीय आदर्श अन्य देशों के लिये भी अनुकरणीय रहे हैं। भले ही यह विभिन्न धर्मों का आश्रय-स्थल है अर्थात यहाँ विभिन्न धर्मावलम्बी सदा से रहे हैं, किन्तु यहाँ की संस्कृति एक है और इसीलिये मनुष्य अपने जीवन की सफलता कर्मों से मुक्त होकर परमात्मरूप को प्राप्त कर लेने में मानते हैं। हमारी संस्कृति का मूल धर्म है अतः मनुष्यों की समस्त प्रवृत्तियों का केन्द्र भी धर्म ही है।
भले ही सब धर्मों की बाह्य क्रियाओं में अंतर है यानी-हिन्दू मन्दिर में पूजा-पाठ करते हैं तथा तीर्थस्थानों के दर्शन कर शांति प्राप्त करते हैं, ईसाई गिरजाघरों में जाकर प्रार्थना करते हैं, बौद्धों के बिहार तथा सिक्खों के गुरुद्वारे होते हैं, मुसलमान मस्जिद में नमाज़ पढ़कर खुदा की इबादत करते हैं और कोई वेद, शास्त्र तथा पुराण आदि के पारायण को आत्म-शुद्धि का साधन मानते हैं। किन्तु समस्त धर्म क्रियाएँ अपने-अपने तरीके से करते हुए भी भारतवासी लोक-परलोक को मानते हैं और कृतकर्मों के अनुसार मिलनेवाले फल पर विश्वास रखते हैं। इसी कारण अपने जीवन-व्यवहार को वे प्रेम, करुणा, परोपकार, सहानुभूति
समाहिकामे समणे तवस्सी ओ भ्रमण समाधि की कामना करता है,वही तपस्वीर
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