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________________ .37 च ना र्च न . तृतीय खण्ड और अहिंसामय बनाकर पाप-कर्मों से बचने का प्रयत्न करते हैं ताकि उनकी प्रात्मा दोष-मुक्त होकर निरंतर शुद्ध होती हुई उत्कृष्टता की चरम श्रेणी पर पहुँचकर प्रात्मसाक्षात्कार कर सके, परमात्मपद की प्राप्ति कर सके यानी परमात्मा बन सके। सभी धर्मावलम्बियों का लक्ष्य निरंतर अपनी प्रात्मा का अभ्युत्थान करते हुए अंत में मोक्ष की प्राप्ति करना होता है। मोक्ष को अपना एकमात्र लक्ष्य मानकर ही भारत के महापुरुष, संत, ऋषि, महर्षि आदि जप, तप, पूजा, उपासना, चिंतन, ध्यान, अाराधना एवं साधना करते रहे हैं। उसके साधनों में भले ही विभिन्नता रही है, किन्तु साध्य एक ही है। यही कारण है कि प्रत्येक भारतीय के हृदय में हमारी संस्कृति एक पावन धारा के रूप में समान भाव से प्रवाहित रहती है तथा आचारविचार और व्यवहार को धर्ममय रखती है। बंधुप्रो ! हमारी संस्कृति में और भी अनेक विशेषताएँ हैं । यथा-संयुक्त पारिवारिक जीवन, वर्णाश्रमव्यवस्था, उत्तम सामाजिक जीवन, सत्संग-प्रियता, गुरुजनों के प्रति आदर, अपने इष्ट के लिये अटूट भक्ति व श्रद्धा, शरणागत की रक्षा, नारियों का सम्मान तथा अपने राष्ट्र के उत्थान की भावना आदि। समयाभाव के कारण इन सबके विषय में विस्तृत नहीं बताया जा सकता । संक्षेप में यही कि, भारतीय संस्कृति अटूट एवं अपराजेय है । इतिहास बताता है कि समय-समय पर अनेक विदेशी संस्कृतियों ने इस पर आक्रमण किया और इसे जीतना चाहा, किन्तु परिणाम यह हुआ कि वे स्वयं हमारी महिमा-मण्डित संस्कृति के महासागर में लहरों के समान लीन हो गईं। यही कारण है कि आज भी अन्य देश भारतीय संस्कृति का लोहा मानते हैं और इसकी महत्ता के सन्मुख अपना मस्तक ऊँचा नहीं कर पाते । विज्ञान के बाहरी क्षेत्र में वे भले ही दौड़ लगाते हैं, किन्तु प्रात्मा के प्रांतरिक क्षेत्र में ज्ञान के गूढ़ रहस्य तक नहीं पहुंच पाते । भारतीय संस्कृति की थाह पाना उनके वश की बात नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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