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________________ पंचम खण्ड / २८ अचेनार्चन ज्ञान-दर्शनसाधना - सामान्यत: प्रत्येक मानव अपने जीवन में अपने ज्ञान, दर्शन एवं क्रियाशक्ति का उपयोग सुख, शांति, मुक्ति रूप उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही करता रहा है व कर रहा है। परन्तु उसे अपने इस उद्देश्य की सिद्धि में सफलता मिलना तो दूर रहा उल्टा, ज्यों-ज्यों दवा की त्यों-त्यों रोग बढ़ता ही गया, यह कहावत चरितार्थ हो रही है। इसका कारण इन शक्तियों का गलत उपयोग अर्थात् दुरुपयोग ही है। इस दुरुपयोग का मूल कारण उसकी यह भ्रान्त व मिथ्या मान्यता है कि सुख इन्द्रियों के विषयभोगों की पूर्ति में व विषयभोगों की सामग्री की उपलब्धि में है। इस मान्यता में रही भ्रान्ति को समझने के लिए कामनापूति से मिलनेवाले किसी भी विषय-सुख का विश्लेषण करना होगा। विषय-सुख की यथार्थता उपर्युक्त तथ्य को समझने के लिए यहाँ भोजन से प्राप्त होने वाले सुख को ही लें। किसी तीन दिन के भूखे व्यक्ति को उसका मनचाहा स्वादिष्ट भोजन मिला, उसने भोजन करना प्रारम्भ किया तो उसे बड़ा सुख प्रतीत हुआ। परन्तु जैसे-जैसे वह ग्रास लेता गया वैसे-वैसे वह सुख घटता गया, क्षीण होता गया। जितना सुख पहले ग्रास के लेने में मिला, उतना सुख दूसरे ग्रास के लेने में नहीं रहा, हर अगले ग्रास में सुख कम होता गया और अन्त में सुख या रस बिल्कुल नहीं रहा। वह सुख या रस नीरसता में बदल गया। फिर उसे कोई बीस-तीस ग्रास और खाने के लिए कितना ही लोभ दे या भय दिखावे, वह और खाने के लिए अपनी असमर्थता प्रकट करेगा। यही बात सुनने के सुख पर भी चरितार्थ होती है। कोई कितना ही मधुर गाना हो, उस गाने की कैसेट बार-बार सुनी जाय तो उसका सुख हर बार, हर क्षण क्षीण होता जायेगा और अन्त में उससे ऊब हो जायेगी, नीरसता पा जायेगी। देखने के सुख को लें। कोई विदेशी हजारों रुपया व्यय करके आगरा के ताजमहल की सुन्दरता को देखने के लिए भारत पाता है और ताजमहल को देखते ही बड़ा सुख अनुभव करता है, परन्तु वह सुख क्षण-प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है । फिर एक क्षण ऐसा आता है कि उसका यह देखने का सुख नीरसता में बदल जाता है तब वह देखने से ऊब कर वहाँ से जाने को उद्यत हो जाता है और चला जाता है। इससे यह परिणाम निकलता है कि इन्द्रियों से मिलने वाला सुख प्रथम क्षण जितना अगले क्षण नहीं रहता है, प्रति क्षण क्षीण होता हुआ वह सुख सूख जाता है, समाप्त हो जाता है, अतः क्षणिक है; अक्षय, नित्य, शाश्वत नहीं है। वस्तुतः विषय-सुख, सुख नहीं सुखमात्र है। जैसे सिनेमाघर में पर्दे पर घटनाएँ सत्य व अभिनेता सजीव दिखाई देते हैं परन्तु वे यथार्थ में सत्य व सजीव होते नहीं हैं, सत्यता व सजीवता का आभास होता है । इसी प्रकार विषय-सुख यथार्थ में होता, उसका अस्तित्व होता तो हमें किसी न किसी प्रकार का सुख तो हर समय मिलता ही रहता है, वह मिला हुमा सुख ढेर सारा इकट्ठा हो जाता । परन्तु सुख का इकट्ठा होना, बढ़ना तो दूर रहा, उसमें से किसी भी सुख का वर्तमान में अस्तित्व ही न रहा। यदि भोग्य वस्तु व भोक्ता के न रहने पर सुख न रहता होता तब भी यह माना जा सकता था कि वस्तु की प्राप्ति के साथ सुख का संबंध है। परन्तु हम सब का अनुभव यह है कि जिस वस्तु से सुख मिला उस भोग्य वस्तु के विद्यमान रहते, जिस इन्द्रिय के साधन से सुख भोगा उस इन्द्रिय व उसकी भोगने की शक्ति के विद्यमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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