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द्वितीय खण्ड/१० आपका जन्म वि. सं. १९४३ में वसंत पंचमी के दिन डाँसरिया ग्राम (मेवाड़) निवासी श्रीमान् मोतीलाल जी मुणोत (मोतीजी) की धर्मशीला तेजस्विनी धर्मपत्नी श्री नन्दबाई की पावन कक्षि से इना था। माता की सत्प्रेरणा के कारण ही आपने बचपन में विद्याभ्यास किया, साधु-संतों की संगति में पहुँचे और धीरे-धीरे पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर एक दिन गुरु-चरणों में प्रवजित हो गए ।
आपने ज्येष्ठ कृष्णा दशमी वि. सं. १९५४ के दिन नागौर में पूज्य स्वामी श्री जोरावरमल जी म. सा. के श्रीचरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की।
यह एक अद्भुत संयोग की बात है कि आपके गुरुदेव श्री जोरावरमल जी म. की दीक्षा भी नागौर में स्वामी श्री फकीरचन्दजी म. के कर कमलों द्वारा नागौर में ही सम्पन्न हुई थी और स्वामी श्री फकीरचन्दजी म. की दीक्षा भी नागौर में ही मुनि श्री बुधमल जी म. के हाथों सम्पन्न हुई थी।
__ आपकी प्रतिभा बड़ी सुतीक्ष्ण और ग्रहणशील थी। किसी भी विषय को बड़ी सरलता से व समग्र रूप से ग्रहण करने में आप दक्ष थे। सर्वप्रथम आपने थोकड़ों का अध्ययन किया। फिर आगमों का अध्ययन करने के लिए प्राकृतभाषा का अध्ययन किया। अनेक सूत्र कंठस्थ किए । सिद्धान्तचन्द्रिका व्याकरण का ज्ञान प्राप्त कर संस्कृत-प्राकृतभाषा के अधिकारी विज्ञ बन गए । जैन आगमों के व्याख्या ग्रन्थ, टीकाएँ आदि का आपने पूर्ण मनोयोग से अध्ययन किया।
शिक्षाक्रम पूर्ण करके भी आप अपने आप में संतुष्ट नहीं हुए। अपने लघु गुरुभ्राता श्री मधुकर मुनिजी के अध्ययन-अध्यापन में भी आप बड़ी गहरी रुचि रखते थे।
श्रमणसंघ के संगठन में तो आपका योगदान अनन्यतम कहा जा सकता है । आपकी सझबझ. उदारता व प्रतिष्ठा की भावना से निलिप्तता और सभी मुनिवरों के साथ मिलनसारिता ने श्रमणसंघ की ऐतिहासिक एकता का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।
आपके जीवन की अनेक विशेषताएं हैं। यदि उन सबका यहाँ विवरण दिया जावे तो एक अच्छी पुस्तक तैयार हो सकती है । अतः वह विवरण न देकर केवल उन गुणों में से कुछ के नाम गिना देना ही पर्याप्त होगा। आप उदार एवं समय को पहचानने वाले थे, तभी तो आपने सं. २०१४ में स्थानक भवन में हरिजनों को प्रवेश कराया था । उत्कृट सहिष्णुता आपका इष्ट गुण था। आप बोलने में एकदम खरे थे किन्तु खारे नहीं थे। पीड़ा सहने में आप वज्र के समान कठोर थे किन्तु उनका हृदय फूल के समान कोमल था-"वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि । दूसरों के दुःखों को देखकर उनका हृदय फूल के समान कोमल हो जाता था। सत्य की साधना से वे अभय हो गये थे। अहिंसा की साधना में इतने गहरे उतर गए थे कि जीवन के प्रति कोई ममत्व उनमें नहीं रहा था। आप एक महान् त्यागी मुनिराज भी थे । आपके त्याग का उदाहरण वि. सं. १९९६ में देश में पड़े दुष्काल
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