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________________ अर्चनार्चन Jain Education International पंचम खण्ड | १५८ करता कि मैं अमुक चक्र को जागृत करूं और न वह जान-बूझकर ऐसी कोई प्रक्रिया ही करता है, किन्तु सम्यक्त्व प्राप्ति की यह सहज स्वाभाविक प्रक्रिया ठीक रक्तसंचरण की तरह हो जाती है। शरीर में रक्त संचारण के लिए धाप कोई क्रिया नहीं करते, किन्तु फिर प्रापकी नसों में, शिराओं में, धमनियों में स्वयमेव अनवरत रूप से रक्त दौरा करता रहता है । इसी तरह चाहे सम्यक्त्व निसर्गज हो अथवा अधिगमज, चेतना केन्द्रों की जागृति उसकी सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया है, साधार है पोर सम्यक्त्व का इसी प्रकार स्पर्श होता है। चेतनाकेन्द्रों का काम यहीं समाप्त नहीं हो जाता, अपितु ये सम्यक्त्व को स्थिर रखने में भी सहायक बनते हैं। विशुद्धिकेन्द्र प्रादि जागृत होकर कयायों, आवेगों-संवेगों घादि को नियन्त्रित रखते हैं। परिणामस्वरूप ग्रात्मानुभूति को धानन्दधारा को गतिशील रहने में मदद मिलती है। - इसी धारा को अध्यात्मशास्त्रों में चेतनाधारा अथवा ज्ञान वेतना के नाम से अभिहित किया गया है। जब तक इस धारा का प्रवाह सतत चलता रहता है, चाहे मंद रूप में ही सही, मानव में सम्यक्त्व की ज्योति जगी रहती है और शनैः शनैः मोक्ष की ओर सर्व दुःखविमुक्ति तथा शाश्वत सुख की ओर बढ़ाती रहती है । अब इस सन्दर्भ में सम्यग्ज्ञान पर भी थोड़ा विचार कर लें । सम्यग्ज्ञान शास्त्रों में उल्लेख है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त होते ही ज्ञान भी सम्यक् हो जाता है। मूढ़ता समाप्त हो जाती है, प्राणी हेय ज्ञेय उपादेय को भलीभांति जानने लगता है । सच तो यह है कि ज्ञान, ज्ञान ही है। इसका स्वभाव जानना मात्र है । वह ज्ञायक है । आत्मा का सर्वप्रमुख और अविनाभावी गुण है। इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है जो ज्ञान है, वही आत्मा है । जे आया से विनाया, जेण वियाण से आया। ज्ञान में विकार मिथ्यात्व के कारण आता है वह यथार्थ रूप में अपना हिताहित नहीं पहचान पाता । उन्मत्तवत् हो जाता है और जैसे ही मिथ्यात्व का नाश हुआ कि ज्ञान भी निर्मल हुआ। अपने हिताहित को जानने लगा, विवेक जाग उठा । यह सम्पूर्ण कथन मति घोर श्रुतज्ञान के सन्दर्भ में है किन्तु तीसरा ज्ञान अवधिज्ञान आत्मा को किस प्रकार प्राप्त होता है, उसके बारे में कुछ चर्चा आवश्यक है । इसका कारण यह है कि अवधिज्ञान से भूत-भविष्य प्रत्यक्ष रूप से जाना जा सकता है, अपना भी तथा श्रौरों का भी । और जिज्ञासा मानव की सहज वृत्ति ( Instinct ) है वह भविष्य के पटलों में छिपे अपने तथा अन्य के भावी जीवन को, धाने वाले समय में प्राप्त होने वाले संकटों को, आपदाओं को, लाभालाभ को आज ही जान लेने के लिए उत्सुक रहता है । इसीलिए तो ज्योतिषशास्त्र, शकुनशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र आदि का श्राभिर्भाव हुप्रा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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