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________________ धर्म-साधना में चेतना-केन्द्रों का महत्त्व / १५९ किन्तु ये सब अनुमानशास्त्र (Scienecs of Suppositions and Probabilities) ही हैं, निश्चित नहीं हैं। जबकि प्रत्यक्ष होने के कारण अवधिज्ञान निश्चित है । अवधिज्ञान : शास्त्रीय चर्चा इस विषय में पहले शास्त्रीय चर्चा कर लें कि हमारे प्रागमों का इस संदर्भ में क्या अभिमत है ? प्रज्ञापना (३३/३३) में अवधि ज्ञान के दो प्रकार बताये गये हैं--(१) देशावधि और (२) सर्वावधि । नंदीसूत्र (१८, गा. २) में परमावधि का उल्लेख प्राप्त होता है। अन्य परम्परा के ग्रंथों में ये तीनों भेद मिलते हैं। नंदीसूत्र (सूत्र ९, १०) में अवविज्ञान के जो छह भेद बताये गये हैं उनमें प्रथम है प्रानुगामिक और उसके दो उत्तर भेद हैं-(१) अंतगत और (२) मध्यगत । इसके अतिरिक्त यद्यपि वहाँ देशावधि और सर्वावधि शब्द नहीं मिलते किन्तु चणियों में जहाँ विस्तार से विवेचन है, उसके अध्ययन से ऐसा परिलक्षित होता है कि 'अन्तगत' देशावधि है और 'मध्यगत' सर्वावधि ज्ञान को लक्षित करता है। टीका ग्रन्थों में 'अन्तगत' के तीन भेद बताये हैं-(१) पुरतः अन्तगत, (२) पृष्ठतः अन्तगत, (३) पार्श्वत: अन्तगत । प्राचार्य हरिभद्र ने अंतगत और मध्यगत के लक्षण इस प्रकार दिये हैं (१) मध्यगत अवधिज्ञान वह है जो प्रौदारिक शरीर के मध्यवर्ती स्पर्द्धकों (ज्ञान अवरोधक कर्म के परमाणु अथवा स्कन्ध) की विशुद्धि से प्रात्मप्रदेशों की विशुद्धि द्वारा सभी दिशाओं को जानता है। दूसरे शब्दों में यह सभी बातों को जानता है । अथवा इस विशुद्धि के परिणाम स्वरूप संपूर्ण स्थूल शरीर को जानने में सक्षम हो जाता है । (२) अंतगत अवधिज्ञान इस प्रौदारिक शरीर के किसी एक भाग से साक्षात जानता है। 'पुरतः अन्तगत' से भविष्य जानने की क्षमता आती है, 'पृष्ठतः अन्तगत' से भूत की घटनामों को जाना जाता है और 'पार्श्वत: अन्तगत' पार्श्ववर्ती घटनाओं का ज्ञान प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। अपने नामों के अनुसार जब इस स्थल शरीर में आगे की ओर अवस्थित चक्र या चेतना केन्द्र जागत होते हैं तब 'पुरतः अन्तगत' प्रगट होता है, पार्श्ववर्ती चेतना केन्द्रों के जागत होने पर 'पार्श्वत: अन्तगत' और पृष्ठवर्ती चेतना केन्द्रों की जागृति 'पृष्ठतः अन्तगत' का कारण बनती है। यहाँ इस सन्दर्भ में हम देशावधि प्रवधिज्ञान की ही चर्चा करेंगे। क्योंकि अभी हम सात चेतनाकेन्द्र ही मान कर चले हैं। यदि विस्तृत दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो हमारे सम्पूर्ण शरीर में चेतनाकेन्द्रों की अवस्थिति है। किन्तु इस निबन्ध की मर्यादा सात केन्द्रों तक ही सीमित रखी गई है। अत: देशावधि की चर्चा तक ही सीमित रहना उचित है। अब आइये आप चेतनाकेन्द्रों पर । प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र में इस विषय पर प्रकाश डाला है और शुभचन्द्र के योगप्रदीप में तो चेतना-केन्द्रों का काफी विस्तृत आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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