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जैन साधना-पद्धति में ध्यान | ४९
एकछत्र है, चक्रवर्ती है, मुनिगण ऐसा कहते हैं । १५ ध्यान के बिना आत्मा का भान नहीं होता और केवल शुभध्यान से ही प्रात्मभान होने पर संसार तर जाने के उदाहरण मिलते हैं। मुंडकोपनिषद् में भी कहा गया है-'ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः' अर्थात् ध्यान करने वाला पुरुष ही मन शुद्ध होने पर परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार करता है । 'ध्यानबिन्दु' उपनिषद् में कहा गया है यदि पर्वत के समान ऊँचे और अनेक योजन तक विस्तार वाले पाप हों तो भी ब्रह्म का ध्यान करने से उन सब पापों का भेदन हो जाता है, अन्य किसी भी उपाय से नहीं होता।
ध्यान का महत्त्व
विश्व का प्रत्येक प्राणी सुख का इच्छुक है, दुःख कोई नहीं चाहता है । पर वह सुख क्या है और कहाँ है और उसके प्राप्त करने के उपाय क्या हैं ? जो वस्तुतः सुख-दुःख के कारण नहीं हैं उन बाह्य पदार्थों में सुख-दुःख की कल्पना करके राग-द्वेष व मोह के वशीभूत होते हुए कर्म से सम्बद्ध होते हैं । इस प्रकार कर्मबन्धन में बंधकर वे सुख के स्थान में दुःख ही अनुभव किया करते हैं । अज्ञानी प्राणी जिसे सुख मानता है वह यथार्थ में सुख नहीं, पर सुख का आभास मात्र है। ऐसे इन्द्रियजनित क्षणिक सुख के विषय में कहा गया है-वह काल्पनिक सुख प्रथम तो सातावेदनीय आदि पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त होता है, अतः पराधीन है। दूसरे पुण्यकर्म के संयोग से यदि वह प्राप्त भी हुआ तो वह जब तक पुण्य का उदय है, तभी तक संभव है। तीसरे उसकी उत्पत्ति दुःखों से व्यवहित है। उस सुख के पश्चात् पुनः अनिवार्य दुःख प्राप्त होने वाला है। कारण यह कि पुण्यकर्म के क्षीण हो जाने पर दुःख के कारणभूत पाप का उदय अवश्यंभावी है। इसलिए ऐसे दुःख मिश्रित सुख को अश्रद्धेय कहा गया है।
ध्यान तप का प्रमुख कारण है, वह तप संवर व निर्जरा का कारण है तथा वे संवर व निर्जरा मुक्ति के कारण हैं। इस प्रकार परम्परा से मुक्ति का कारण ध्यान ही है । जिस प्रकार अग्नि चिरसंचित ईंधन को भस्मसात् कर देती है उसी प्रकार ध्यान चिरसंचित कर्म रूप ईंधन को भस्मसात् कर देता है। अथवा जिस प्रकार वायु के आघात से मेघों का समूह छिन्न-भिन्न हो जाता है उसी प्रकार ध्यान रूप वायु के आघात से कर्मरूप मेघसमूह क्षण भर में विलीन हो जाता है। इतना ही नहीं ध्यान के प्रभाव से इस लोक में मानसिक और शारीरिक दुःखों से भी संतप्त नहीं होता। इस प्रकार ध्यान में अपूर्व सामर्थ्य है।
ध्यान पर प्रारूढ़ हुमा ध्याता चूंकि इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष और मोह से रहित हो जाता है, इसलिए उसके जहाँ नवीन कर्मों के प्रागमन का निरोध होता है वहाँ ध्यान से उद्दीप्त तप के प्रभाव से पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार वह ध्यान परम्परा से निर्वाण का कारण है ।
१५. निर्जराकरणे बाह्यात्छष्ठमाभ्यन्तरं तपः ।
तत्राप्येकातपत्रत्वं ध्यानस्य मुनयो जगुः॥ -कर्त्तव्यकौमुदी पृ० ५५५ १६. ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव, प्रस्तावना पृ० १०-११
आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम
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