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धर्म-साधना में चेतना केन्द्रों का महत्व / १६१
जैसा कि इस निबन्ध के अध्ययन से स्पष्ट है कि शरीर में अवस्थित प्रमुख सात चेतनाकेन्द्र शक्ति के मुख्य वाहक हैं, उनसे चेतनाधारा अधिक वेग और प्रवाह के साथ बहती है, उनके जागृत होते ही प्रात्मा की ज्योति प्रस्फुटित होने लगती है।
तप ध्यान में अवस्थित योगी जब इन चक्रों पर अपनी चेतनाधारा को पूरे वेग से प्रवाहित करता है तो विशिष्ट श्रात्मज्योति प्रकट होती है । श्राग्नेयी धारणा में नाभिकमल से अग्नि स्फुलिंग उठते अनुभव होते हैं। योग शास्त्रों में यह स्थान प्रचण्ड शक्ति का केन्द्र कहा गया है। मूलाधार चक्र पर जब ध्यान किया जाता है तो शिखर की स्वर्णिम ज्योति का स्पष्ट प्रभास साधक को हो जाता है ।
इसी प्रकार स्वाधिष्ठान चक्र पर विद्युत रेखा, मणिपूर पर बालसूर्य की प्रभा अनाहत पर अग्निशिखा, विशुद्धि पर दीपशिखा, सोम पर सूर्य जैसी चमकीली स्वर्णिम प्रभा तथा सहस्रार पर प्रचण्ड तेज का साक्षात् अनुभव साधक को होता है।
ये सभी चक्र ज्योति को अपने अन्दर समेटे हुए हैं, ध्यान-तप से वह ज्योति प्रकट होती है गाथा में उक्त 'तवो जोई' शब्द से इसी ओर संकेत किया गया है। किन्तु इस संपूर्ण आध्यात्मिक ज्योति का मूल अधिष्ठान जीव स्वयं है, इसी की शक्ति कार्य करती है, इसीलिए इस गाया में 'जीवो जोइठाणं' कहा गया है।
इस निबन्ध में लगभग समस्त परंपरायों, मान्यतानों और योगशास्त्रों द्वारा स्वीकृत सात चेतनाकेन्द्रों को सम्यग्दर्शन, ज्ञान, तप के सन्दर्भ में उपयोजित दिखाने का प्रयत्न किया गया है ।
किन्तु जैन आगमों का गहराई से अध्ययन करने पर विदित होता है कि इस मानवशरीर में धनेकों चेतनाकेन्द्र हैं, अथवा यों भी कह सकते हैं कि सम्पूर्ण शरीर ही चेतनाकेन्द्र है। वैसे जैनदर्शन ने सम्पूर्ण शरीर में धात्मा को व्याप्त माना है। इस दृष्टि से सर्वाधि अवधिज्ञान की भी भौतिक दृष्टि से व्याख्या विवेचना की जा सकती है और इस ज्ञान के - कार्यकारित्व में प्रौदारिक शरीर की उपयोगिता भी बताई जा सकती है।
धन्त में इतना कहना आवश्यक है कि हम काय अस काय योग और काय करण- इन तीनों शब्दों में स्पष्ट अन्तर समझें । आागम में इन तीनों शब्दों से क्या अभिप्रेत है ? इनसे हमें क्या समझना चाहिए ? तीर्थंकर भगवान् ने ये शब्द किस श्राशय से सुनाये और गणधर देवों ने इन्हें किस प्रभिप्राय से हमें प्रदान किया ? इनका गूढार्थ क्या है ? कितने रहस्य जिसे हैं ?
इन और ऐसे ही अनेक प्रश्नों पर आागमश और विद्वज्जन मान्यताओं के सन्दर्भ में मनन करके अपने चिन्तनरूप नवनीत को समाज के समक्ष रखें तो लोगों का बहुत उपकार होगा, वे साधना में शरीर की उपयोगिता समझेंगे।
एक सुझाव है सभी साधकों, विद्वानों और सर्वसाधारणों के लिए - काययोग को 'काय' ही न बनाये रखें, इसे काय करण बनायें। यह मोक्ष की ओर गति करने में सहायक बन जायेगा ।
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- १९ नेहरू नगर आगरा - २६२००२,
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आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन
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