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________________ पंचम खंड / ५२ अर्चनार्चन विपाक-विचय और संस्थान-विचय विश्व की सर्व सम्पत्ति अथवा विपत्ति, सुख या दुःख, संयोग या वियोग, पूर्व-जन्म के उपाजित अपने पुण्य या पाप के ही फल हैं, जब यह विचार किया जाय और इस पर अपने मन को एकाग्र कर लिया जाय तब विपाक-विचय नामक धर्मध्यान के तीसरे प्रकार की सिद्धि होती है और जब इस लोक-जगत के नख से शिख तक के आकार और उसमें जीव का जाना और प्राना-जन्म और मरण अथवा परिभ्रमण को अपने एकाग्र हुए निर्मल मन में चिन्तन किया जाय, तो संस्थान-विचय नामक धर्मध्यान का चौथा प्रकार सिद्ध होता है। प्राचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य कहते नानाद्रव्यगतानन्तपर्याय-परिवर्तनात् । सदासक्त मनो नव रागाद्याकुलतां व्रजेत् ।। अर्थात इस लोकस्वरूप पर विचार करने से, द्रव्यों के अनन्त पर्यायों के परावर्तन करने से, निरंतर उसमें आसक्त रहने वाला मन रागादि की आकुलता नहीं प्राप्त करता। इस प्रकार धर्मध्यान के चारों प्रकार प्रात्मा के निर्मल करने में साधन रूप हैं। धर्मध्यान के आलम्बन और भावना धर्मध्यानरूपी पर्वत पर चढ़ने के लिये शास्त्र में चार प्रकार के पालम्बन-सहारे-बताये गये हैं-(१) आध्यात्मिक और (२) तात्त्विक शास्त्रों का पठन, परियटणा-मनन-करने योग्य विषय पर ऊहापोह करना और अभ्यस्त तत्त्वों पर कथा कहना । यह चार पालम्बन ध्यान के इच्छुक को ग्रहण करना चाहिए। ध्यान की विशुद्धि के लिए अनित्य भावना, अशरण भावना, संसार भावना और एकत्व भावना, यह चार भावनायें तब तक करते रहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट से उत्कृष्ट रुचि उत्पन्न न हो जाय ।" ध्येय के चार प्रकार ध्यान की विधि में ध्येय के चार प्रकार शास्त्रों में मिलते हैं-पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत । इनमें पार्थिवी प्रादि धारणा के रूप में एकाग्रता से प्रात्मा का चिन्तन किया जाय, उसे ध्येय के चार प्रकारों में से प्रथम पिण्डस्थ ध्येय कहते हैं। पदस्थ ध्येय-नाभि में सोलह पंखुड़ियों वाले, चित्त में चौबीस पंखड़ियों वाले और मुख में पाठ पँख ड़ियों वाले कमल की कल्पना करके, उस पर प्रत्येक पंखड़ी पर कोई प्रक्षर बनाकर, एकाग्रतापूर्वक उसका या पंच परमेष्ठि मंत्र के शब्दों का एकाग्र मन से स्थिरतापूर्वक चिंतन करने को पदस्थ ध्येय अथवा ध्यान कहते हैं। रूपस्थ और रूपातीत-भगवान महावीर की शान्त अवस्था का निर्मल स्वरूप, स्थिर और एकाग्र चित्त में स्थापित करके प्रति निर्मलता से समय निर्धारित कर उसका चिन्तन किया जाय, तो वह रूपस्थ ध्येय कहलाता है। २६. धर्मध्याननगाधिरोहणकृते शास्त्रोक्तमालंबनं । ग्राह्य वाचनप्रच्छनोहन कथेत्येवं चतुर्भेदकम् ।। संसाराशरणेकता क्षणिकता रूपाश्चतुर्भावना। भाव्या-ध्यानविशुद्धये समुदिपाद्यावत्प्रकृष्टा रुचिः ॥ -कर्त्तव्यकौमुदी ५६७१२०६ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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