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________________ जैन-परम्परा में ध्यान | १२३ उसके बाद गुरुजी ने दुर्योधन आदि सभी कुमारों की परीक्षा ली। उनसे भी वही प्रश्न किया गया और सभी ने वही उत्तर दिया । सभी लक्ष्यवेध में विफल हुए। अन्त में अर्जुन की बारी आई। अर्जुन से भी गुरुजी ने वही प्रश्न किया- अर्जुन ! क्या देखते हो ? लक्ष्य पर दृष्टि जमाये अर्जुन ने उत्तर दिया-मुझे सिर्फ मयूरपंख ही दिखाई देता है । गुरुजी-ध्यान से देखो, वत्स ! अर्जुन-अब तो मुझे चंदोवा ही दिखाई देता है। गुरुजी-क्या तुम्हें वक्ष, अपने भाई और मैं कुछ भी नहीं दिखाई देता है ? जी नहीं ! अर्जुन की दृष्टि लक्ष्य पर एकाग्र हो चुकी थी, उसने बाण छोड़ा। लक्ष्यवेध हो गया। अर्जुन परीक्षा में सफल हुआ तथा महान् धनुर्धर बना। ___तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार लक्ष्यवेध के लिए अडोल एकाग्रता की आवश्यकता है, इसी प्रकार ध्यान में एकाग्रता की मावश्यकता है। यह है ध्यान की एकाग्रता का महत्त्व ! जिसके द्वारा प्रात्मा कर्मों को छिन्न-भिन्न कर सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन सकता है। सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सम्वस्स साहुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥ अर्थात् प्रात्मशोधन में ध्यान का ऐसा प्रमुख स्थान है जैसे शरीर में मस्तिष्क का तथा वृक्ष में उसकी जड़ का। प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है ध्यानाग्निदग्धकर्मा तु सिद्धात्मा स्यान्निरञ्जनः । अर्थात् ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा प्रात्मा कमों को जलाकर सिद्धस्वरूप पा लेता है। ध्यान की इच्छा रखने वाले साधक के लिए निम्न बातें जानने योग्य हैं-(१) ध्याता, (२) ध्यान, (३) फल, (४) ध्येय, (५) ध्यान का स्वामी, (६) ध्यान के योग्य क्षेत्र, (७) ध्यान के योग्य समय, (८) ध्यान के योग्य अवस्था। (१) ध्याता-वह व्यक्ति ध्यान का अधिकारी माना गया है, जो जितेन्द्रिय है, धीर है, जिसके क्रोधादि कषाय शान्त हैं, जिसकी आत्मा स्थिर हो, जो सुखासन में स्थित हो एवं नासा के अग्रभाग पर नेत्र टिकाने वाला है। (२) ध्यान-अपने ध्येय में लीन हो जाना अर्थात् प्राज्ञाविचयादि रूप से स्वयं परिणत हो जाना-रम जाना ध्यान है। (३) फल-ध्यान का फल संवर और निर्जरा है । भौतिक सुख- सुविधाओं की प्राप्ति के लिए ध्यान करना निषिद्ध है। (४) ध्येय-जिस इष्ट का अवलम्बन लेकर ध्यान-चिन्तन किया जाता है, उसे ध्येय कहते हैं । ध्येय के चार प्रकार हैं-(१) पिंडस्थ, (२) पदस्थ, (३) रूपस्थ, (४) रूपातीत । आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.janelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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