SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1057
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम खण्ड / १२४ (५) ध्यान का स्वामी-(i) वैराग्य, (ii) तत्त्वज्ञान, (iii) निर्ग्रन्थता, (iv) समचित्तता, (v) परिषहजय, ये पांच ध्यान के हेतु हैं। इनके अतिरिक्त उच्च संस्कारिता, तत्त्वज्ञान प्राप्ति के लिए सद्गुरु की निरन्तर सेवा-शुश्रूषा, विषयों के प्रति उदासीनता, कषायों का निग्रह, व्रत धारण, इन्द्रियजय, मन में अतुल शांति और दृढ़तम संकल्प होना चाहिये। इनसे सम्पन्न व्यक्ति ध्यान का स्वामी कहलाता है। (६) ध्यान का क्षेत्र-जहाँ ध्यान में विघ्न करने वाले उपद्रवों एवं विकारों की सम्भावना न हो, ऐसा क्षेत्र ध्यान के योग्य माना जाता है। (७) ध्यान के योग्य काल यद्यपि जब भी मन स्थिर हो उसी समय ध्यान किया जा सकता है फिर भी अनुभवियों ने प्रातःकाल को सर्वोत्तम माना है। (८) ध्यान के योग्य अवस्था-शरीर की स्वस्थता एवं मन की शांत अवस्था ध्यान के लिए उपयुक्त कहलाती है। प्रकार आत, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये ध्यान के चार प्रकार हैं। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में भी गौतम व भगवान् के प्रश्नोत्तरों में ध्यान चार प्रकार का बताया है। प्रथम दो-प्रार्तध्यान और रौद्रध्यान अप्रशस्त हैं। ये संसार-भ्रमण के कारण हैं और अन्तिम दो-धर्मध्यान और शुक्लध्यान प्रशस्त हैं, जो मुक्ति के कारण हैं । वस्तुतः अप्रशस्त और प्रशस्त ध्यानों में थहर के दूध और गाय के दूध जितना अन्तर है। अप्रशस्त ध्यानों को विशिष्ट ध्यान की कोटि में नहीं रखा जाता है, तथापि एकाग्रता की दृष्टि से उन्हें भी ध्यान के भेदों में परिगणित किया गया है। प्रशस्त ध्यानों का स्वरूप इस प्रकार है प्राचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्ययन में आर्तध्यान का निरूपण करते हए लिखा है आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगायस्मृतिसमन्वाहारः । वेदनायाश्च । विपरीतं मनोज्ञानाम् । निदानं च। -तत्त्वार्थसूत्र ९:३१-३२-३३-३४ मनोज्ञ व अमनोज्ञ वस्तुओं पर रागद्वेषमय चिन्तन की एकाग्रता को प्रार्तध्यान कहते हैं । वह चार प्रकार का है-(१) प्राप्त अप्रिय वस्तु के वियोग के लिए चिन्ता करना, (२) आये हए दुःख को दूर करने की सतत चिन्ता करना, (३) प्रिय वस्तु के वियोग होने पर उसकी प्राप्ति की सतत चिन्ता करना और (४) निदान करना। वह अविरत, देशसंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानों में संभव है। स्थानांगसूत्र के चौथे स्थान के पहले उद्देशक में प्रार्तध्यान के चार लक्ष णबतलाये हैं, यथा(१) क्रन्दनता (रोना) (२) शोचनता (चिन्ता या शोक करना) (३) तेपनता (बार-बार अश्रुपात करना) (४) परिदेवनता (विलाप करना) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy