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________________ जैन-परम्परा में ध्यान / १२५ रौद्रध्यान का निरूपण हिसाऽनृतस्तेयविषय संरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः। -तत्त्वार्थसूत्र ९।३६ हिंसा, असत्य, चोरी और विषयरक्षण के लिए सतत चिन्ता रौद्रध्यान है, वह अविरत और देशविरत गुणस्थान में सम्भव है। स्थानांगसूत्र में इसके भी चार लक्षण बताये हैं, यथा(१) उत्सन्नदोष-हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति करना । (२) बहुदोष-हिंसादि सभी पाप करना । (३) अज्ञानदोष-कुसंस्कारों से हिंसादि अधार्मिक कार्यों में धर्म मानना । (४) आमरणान्तदोष - मरणकाल तक भी हिंसादि करने का अनुताप न होना । रौद्रध्यान के विषय में मणिरथ का ज्वलंत उदाहरण हमारे समक्ष है, जिसने अपने भाई की पत्नी मदनरेखा को पाने के लिए अपने लघुभ्राता युगबाहु की हत्या करके दुर्गति पाई और अपनी आत्मा को पतित बनाया। जो प्रात्मोत्थान करने वाले हैं, जीव के साथ अनादि काल की कर्मपरम्परा को नष्ट कर नीरज बनाने वाले हैं, ऐसे प्रशस्त ध्यानों का स्वरूप इस प्रकार है धर्मध्यान धम्मे झाणे चउम्बिहे चउप्पडोयारे पण्णत तंजहाआणाविजए, अवायविजए, विवागविजए, संठाणविजए॥ -व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र २५७, स्थानांग ४।१. धर्मध्यान चार प्रकार का और चतुष्प्रत्यवतार (स्वरूप, लक्षण, पालम्बन और अनुप्रेक्षाइन चार पदों में अवतरित) कहा गया है। यथा १. आज्ञाविचय-जिन-प्राज्ञा रूप प्रवचन के चिन्तन में संलग्न रहना । सर्वज्ञ की प्राज्ञा क्या ? कैसी होनी चाहिये? परीक्षा करके वैसी आज्ञा का पता लगाने के लिए श्रुत और चारित्र रूप धर्माराधना के लिए मनोयोग लगाना आज्ञा विचय धर्मध्यान है। २. अपायविचय-संसार पतन के कारणों एवं निज दोषों का विचार करते हुए उनसे बचने के उपाय सम्बन्धी मनोयोग लगाना अपायविचय धर्मध्यान है। ३. विपाकविचय-कर्मों के फल का विचार करना। अनुभव में आने वाले विपाकों में कौन-सा विपाक किस कर्म का प्राभारी है तथा अमक कर्म का प्रमक विपाक सम्भव है, इसके विचारार्थ मनोयोग लगाना विपाकविचय धर्मध्यान है। ४. संस्थानविचय-जन्म-मरण के अाधारभूत पुरुषाकार लोक के स्वरूप का विचार करने में मनोयोग लगाना । इस अनादि अनन्त जन्म-मरण-प्रवाह रूप संसारसागर से पार करने वाली ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप अथवा संवर-निर्जरा रूप धर्म नौका का विचार करना, ऐसे धर्मचिन्तन में मनोयोग लगाना संस्थानविचय धर्मध्यान है। आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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