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________________ पंचम खण्ड / १२२ अर्चनार्चन मन की अवस्थाओं को जाने बिना और उसे उच्चस्थिति में स्थित किये बिना योगसाधना संभव नहीं है। हेमचन्द्राचार्य ने स्वानुभव को योगशास्त्र के बारहवें प्रकाश में उद्घाटित करते हुए सर्वप्रथम अवस्थानों के आधार पर मन के भेदों का निरूपण किया है--- इह विक्षिप्तं यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च । चेतश्चतुः प्रकारं तज्ज्ञचमत्कारकारि भवेत् ॥ -योगशास्त्र १२१२ योगाभ्यास के प्रसंग में मन चार प्रकार का है-(१) विक्षिप्त मन, (२) यातायात मन, (३) श्लिष्ट मन, (४) सुलीन मन । चित्त के व्यापारों की ओर ध्यान देने वालों के लिए यह भेद चमत्कारजनक होते हैं। विक्षिप्त मन चंचल है जो भटकता रहता है। यातायात मन कुछ प्रानन्दवाला है, वह कभी बाहर चला जाता है कभी अन्दर स्थिर हो जाता है। प्राथमिक अभ्यास में ये दोनों स्थितियां होती हैं। श्लिष्ट मन स्थिर होने के कारण मानन्दमय होता है और सुलीन मन अत्यन्त स्थिर होने के कारण परमानन्दमय होता है। जैसे-जैसे क्रमश: चित्त की स्थिरता बढ़ती है, वैसे-वैसे प्रानन्द की मात्रा भी बढ़ती जाती है । अत्यन्त स्थिरचित्तता से परमानन्द की प्राप्ति होती है। मन के भेदों को समझकर चित्त-स्थिरता की योग्यता प्राप्त करके ध्यान में प्रवृत्त होना चाहिये। ध्यान की एकाग्रता को ठीक तरह से समझने के लिए एक उदाहरण उपयोगी होगा गुरु द्रोणाचार्य के पास राजकुमारों की धनुर्विद्या पूरी हो चुकी थी। सिर्फ धनुर्विद्या की श्रेष्ठ कला राधावेध की परीक्षा शेष थी। द्रोणाचार्य सभी राजकुमारों को लेकर वन में गये । मयूरपंख एक वृक्ष की शाखा से लटका दिया गया। द्रोणाचार्य ने मयूरपंख की ओर संकेत करते हुए कुमारों से कहा ___ इस मयूरपंख की प्रांख ( चन्द्रमा का-सा निशान अथवा चन्दोवा ) वेधना है। तैयार हो जायो। द्रोणाचार्य ने सबसे पहले युधिष्ठिर को संकेत करके बुलाया । युधिष्ठिर धनुष पर बाण रखकर खड़े हो गये । तब द्रोणाचार्य ने पूछा-युधिष्ठिर ! तुम क्या देखते हो? ___युधिष्ठिर-गुरुजी, मैं आपको, अपने भाइयों को, वृक्ष को, मयूरपंख को, सभी को देख रहा हूँ। ध्यानपूर्वक देखो, वत्स ! हाँ गुरुजी ! मुझे सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे रहा है। युधिष्ठिर के इस उत्तर से द्रोणाचार्य निराश हो गये। वे समझ गये कि यह लक्ष्यवेध नहीं कर सकता । फिर भी उन्होंने तीर छोड़ने की आज्ञा दी। लक्ष्य पर युधिष्ठिर का ध्यान केन्द्रित नहीं था, निशाना चूक गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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