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________________ योगदृष्टिसमुच्चय एक विश्लेषण / ९७ उससे औरों को भी लाभ मिले, औरों को भी वह ऐसे मार्ग से जोड़ सके, इस प्रकार का उद्यम भी उसका रहता है । निर्मल ग्रात्मजान के उद्योग के कारण ऐसे दृष्टि से बहुत गम्भीर और उदार भूमिका का उसके व्यक्तित्व का विशेष गुण हो जाता है । प्रभा 1 प्रभा सातवीं दृष्टि है। प्राचार्य ने सूर्य के प्रकाश की इसको उपमा दी है। तारे और सूर्य के प्रकाश में बहुत बड़ा अन्तर है तारे की अपेक्षा सूर्य का प्रकाश अनेक गुना अधिक श्रवगाढ और तीव्र तेजोमय होता है । प्रभा दृष्टि का बोध - प्रकाश भी अत्यन्त तीव्र, प्रोजस्वी एवं तेजस्वी होता है । कान्ता दृष्टि की अपेक्षा प्रभादृष्टि के प्रकाश की प्रगाढता बहुत अधिक बढ़ी चढ़ी होती है। सूर्य के प्रकाश से सारा विश्व प्रकाशित होता है । उसके सहारे सब कुछ दीखता है। ऐसी ही स्थिति प्रभा दृष्टि की है। वहाँ पहुँचे हुए साधक को समग्र पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । प्रचुर तेजोमयता तथा प्रभाशालिता के कारण आचार्य ने इस दृष्टि का नाम ही प्रभा दे दिया, जो बहुत संगत है । साधक का व्यक्तित्व धर्म के प्राचरण की संस्पर्श कर जाता है । समुद्र की-सी गंभीरता जहाँ इस कोटि का बोधमूलक प्रकाश उद्भासित होता है, वहाँ साधक की स्थिति बहुत ऊँची हो जाती है । वह सर्वथा अखण्ड श्रात्म ध्यान में निरत रहता है । ऐसा होने से उसकी मनोभूमि विकल्पावस्था से प्रायः ऊँची उठ जाती है ऐसी उत्तम प्रविचल ध्यानावस्था से आत्मा में परिसीम सुख का स्रोत फूट पड़ता है वह सुख परम शान्ति रूप होता है, जिसे पाने के लिए साधक साधना-पथ पर गतिमान् हुआ था । यह ऐसा सुख होता है, जिसमें धात्मेतर किसी भी पदार्थ का अवलम्बन नहीं होता। यह परवशता से सबंधा अस्पृष्ट होता है। यहाँ साधक का प्रातिभ ज्ञान या अनुभूति प्रसूत ज्ञान इतना प्रबल एवं उज्ज्वल हो जाता है कि उसे शास्त्र का प्रयोजन रहता नहीं । ज्ञान का प्रत्यक्ष या साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है । ग्रात्मसाधना की यह बहुत ऊँची स्थिति है । उस समाधिनिष्ठ योगी की साधना के परम दिव्य भाव-कण आसपास के वातावरण में एक ऐसी पवित्रता संभृत कर देते हैं कि उस महापुरुष की सन्निधि में आने वाले जन्मजात शत्रुभावापन्न प्राणी भी अपना बैर भूल जाते हैं। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है, सचाई है। ऐसे महान् योगी के परम विव्य करुणा का, जिसे बौद्ध वाङ् मय में "महाकरुणा" कहा गया है, ऐसा प्रमल, धवल स्रोत फूट पड़ता है, वह अन्य प्राणियों का भी उपकार करना चाहता है, मार्ग दिखाकर उन्हें अनुगृहीत करना चाहता है। यह सब स्वभावगत है वहाँ कृत्रिमता का कहीं लेश भी नहीं होता । परा Jain Education International श्रेयस् और कल्याण का परिणाम धारा से सम्बद्ध परा भाठवीं दृष्टि है। प्राचार्य ने इसे चन्द्रमा की प्रभा से उपमित किया है। सूर्य का प्रकाश बहुत तेजस्वी तो है पर उसमें उग्रता होती है। इसलिए श्रालोक देने के साथ-साथ वह उत्ताप भी उत्पन्न करता है। सूर्य की अपेक्षा चन्द्र के प्रकाश में कुछ अद्भुत वैशिष्ट्य For Private & Personal Use Only आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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