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आगम का व्याख्यासाहित्य / १६७
कि ण गतासि भिखाए ? अज्ज ! खमणं मे। कि णिमित्त ? मोह-तिगिच्छं करेमि। अहं पि करेमि।
इसमें प्रकृतिचित्रण, सिंध-प्रदेश, मालवप्रदेश, निग्रंथ, शाक्य, तापस, गैरिक, प्राजीवक, चार अनुयोग, मंत्रविद्या प्रादि का उल्लेख है। तरंगवती, मलयवती, धूर्ताख्यान और वसुदेवाचरित्र प्रादि ग्रंथों का भी उल्लेख है।
महानिशीथचूणि-इस ग्रंथ की अभी तक प्राप्ति नहीं हो सकी है। पर इसका अनुसंधान हरिभद्रसूरि ने किया था।
बृहत्कल्पचूणि--इस चूर्णि को श्रमणों के जीवन को प्रतिपादित करनेवाला प्राचारशास्त्र कहा जा सकता है।
व्यवहारचूणियह चूणि भी श्रमणचर्या को प्रस्तुत करती है।
जीतकल्प-जिनभद्र क्षमाश्रमण ने इसमें साधुनों के पाँच व्यवहारों, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख कर विस्तार से वर्णन किया है।
पंचकल्प–इसमें पांच प्रकार के कल्पों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। संघदास गणि ने इस पर चूणि लिखकर प्राचार-शास्त्र की सम्यग् व्याख्या की है।
टीका-परिचय
नियुक्तियों, भाष्यों, चूणियों के बाद प्रागमों पर टीकाएं लिखी गईं। टीकाएं संस्कृत में ही लिखी गईं। नियुक्ति भाष्य, चूणि, टीका, विवृत्ति, वृत्ति, विवरण, विवेचना, अवचूरि, प्रवचूर्णि, दीपिका, व्याख्या, पन्जिका, विभाषा और छाया को टीका ही कहा गया है।
टीकानों में लोककला को समझाने का प्रारंभ भी हया । परन्तु टीकाकारों ने प्रागमों पर सैद्धांतिक विवेचन के साथ दार्शनिक विवेचन भी विस्तृतरूप से किया है।
प्रसिद्ध टीकाएँ और उनके टीकाकार
टीकाकारों में आचार्य हरिभद्रसूरि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है । क्योंकि इन्होंने राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना, दशवैकालिक, आवश्यक, नंदी, अनुयोगद्वार आदि सूत्र ग्रंथों पर संस्कृत में सर्वप्रथम टीकाएं लिखी थीं।
इसके बाद आचार्य शीलांक ने प्राचारांग, सूत्रकृतांग पर दार्शनिक दृष्टि से टीका प्रस्तुत की।
शांतिरि ने उत्तराध्ययन पर 'पाइय टीका' लिखी है इस पर संस्कृत टीका भी लिखी गई ।
धम्मो दीयो है। मलधारी हेमचंद्र और कोटचाचार्य ने विशेषावश्यक पर टीका लिखी।
संसार समुद्र में
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