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जैन तात्विक परम्परा में मोक्ष : रूप-स्वरूप / ३३
जैनागम में वर्णित हैं ।२६ कर्म-पुद्गलों के आत्मा की ओर आकृष्ट होने पर जब वे प्रात्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह | एक ही स्थान में रहने वाला सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं अर्थात् प्रात्मतत्त्व जब कर्मों से संम्पृक्त हो जाता है तब जो स्थिति होती है वह बन्ध की स्थिति होती है।२७ मूलत: जीव के मनोविकार ही कर्मबन्ध की स्थिति को स्थिर किया करते हैं, अस्तु जैनदर्शन में बन्ध को चार भागों-प्रकृति (कर्मों की प्रकृति/स्वभाव की स्थिरता), स्थिति ( कर्मफल की अवधि काल की निश्चितता ), अनुभाग/अनुभव ( कर्मफल की तीव्र या मन्द शक्ति की निश्चितता) तथा प्रदेश ( कार्मिक सम्बन्ध में कर्मों की संख्या की नियतता) में वर्गीकृत किया गया है ।२८ जिनमें प्रकृति-प्रदेशबन्ध योग के निमित्त से तथा स्थिति-अनुभागबन्ध, कषाय-मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद के निमित्त से हुआ करते हैं ।२६ यह बन्ध तत्त्व संसारी जीव को अनन्त भवों में, संसारचक्र में परिभ्रमण कराता रहता है तथा जीव को वास्तविक स्वरूप से उसकी प्रतीति से सर्वथा वंचित रखने में अपनी भूमिका का निर्वाह भी करता है। प्रात्म-स्वरूप-प्रतीति-प्राप्त्यर्थ संसारी जीव को प्रास्रव-निरोध अर्थात् कर्मद्वार को बन्द करना पड़ता है, जिससे नवीन कर्मों का आगमन रुक जाता है। जैनदर्शन में इस प्रक्रिया को 'संवर' कहा गया है। यह द्रव्य और भाव दो प्रकार का माना गया है । ३१ संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति होना अर्थात् आत्मा का शुद्धोपयोग । शुद्धचेतन परिणाम भावसंवर तथा कर्मपुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद होना-निरोध करना अर्थात् जो द्रव्यास्रव को रोकने में कारण भूत हैं, द्रव्य संवर कहलाता है । ३२ इस प्रकार संवर द्वारा नए कर्म रोके जाते हैं किन्तु पुराने-संचित कर्मों से निवृत्ति भी परमावश्यक है । इसके लिए जो साधना की जाती है, उसे निर्जरा कहा जाता है । 33 यह साधना ध्यान-ज्ञान तथा तपादि के द्वारा पूर्ण होती है। इसमें लीन साधक अपने समस्त कर्मों को क्षय करता हपा पात्मिक आनन्दानुभूति के साथ वीतरागता को प्राप्त होता है । जैनदर्शन में निर्जरातत्त्व के अनेक दृष्टि से भेद-प्रभेद किये गये हैं। ३४ ये सभी भेद पूर्वबद्ध कर्म-फल की मलिनता को शनैः शनैः दूर करने के उपाय--साधन हैं । नवीन तथा पूर्वबद्ध अर्थात् समस्त कर्मों से संसारी जीव जब मुक्तविमुक्त हो जाता है तब वह मोक्षावस्था को प्राप्त हो जाता है अर्थात् संसार के आवागमन से छूट जाता है । जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष अन्तिम तत्त्व है।
प्रस्तुत निबन्ध में जैन तात्त्विक परम्परागों में मोक्ष का क्या स्वरूप है ? उसकी प्राप्ति के क्या विधि-विधान हैं ? आदि महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी विषय पर संक्षिप्त चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत है ।
समस्त भारतीय दर्शन के चिन्तन का केन्द्रबिन्दु है-आत्म-स्वरूप तथा उसकी प्रतीति की प्राप्ति अर्थात् संसारी जीव के अन्तिम लक्ष्य-साध्य के स्वरूप को निर्धारित कर उसकी प्राप्ति के लिए साधन उपाय को जन-जन तक पहुंचाना । यह परम सत्य है कि समस्त आस्तिक दर्शनों का मार्ग्य साध्य तो एक ही है किन्तु मार्ग साधना में किंचित् भिन्नता है अर्थात् मोक्ष की कल्पना सभी आस्तिक दर्शनों में हुई है। अपने-अपने ढंग से उसके स्वरूप पर निरूपण भी हुआ है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, योग तथा बौद्धदर्शन में दुःख की प्रात्यन्तिक निवृत्ति को मोक्ष माना है । ५ इनकी मान्यतानुसार मोक्ष में शाश्वत सुख नामक कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । वेदान्त के मत में जीवात्मा तथा परमात्मा का मिलन मोक्ष है । ३६ इसमें शाश्वत सुख की प्रधानता है। दुःख की प्रात्यन्तिक निवृत्ति मोक्ष हो जाने पर स्वतः ही हो जाती है। इस
धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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