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________________ अर्चनार्चन Jain Education International चतुर्थखण्ड / ३२ द्रव्य, स्वभाव, परम परम, ध्येय, शुद्ध, तथा परम के लिए भी तत्त्व शब्द का प्रयोग हुआ है । " ये सभी शब्द एकार्थवाची हैं। तत्त्व वास्तव में एक है किन्तु हेय व उपादेय के भेद से अथवा सामान्य विशेष भेद से जैनागमों में यह दो जीव और अजीव, सात- जीव, प्रजीव, आस्रव, वन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष तथा नौ-जीव, प्रजीव, पुण्य, पाप, ग्रासव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामक भागों में विभक्त है । इन सब में जीव और प्रजीव तत्त्व ही प्रमुख है, शेष आस्रवादि तत्त्व जीव प्रजीव की पर्याय होने से इन दोनों में ही समाहित हैं। संसार या मोक्ष दोनों में जीन प्रधान तत्त्व है। शरीर मन वचन की समस्त शुभ-अशुभ क्रियाएं जीव के द्वारा सम्पादित हुआ करती हैं अर्थात् विश्व की व्यवस्था का मूलाधार जीव ही है। जैनदर्शन के अनुसार जब जीव संसारी दशा में प्राण धारण करता है, तब जीव कहलाता है अन्यथा ज्ञान दर्शन - स्वभावी होने के कारण यह प्रात्मा से संज्ञायित है। वैसे इसके अनेक पर्यायवाचक शब्द जैनागम में स्पष्टतः परिलक्षित है। यह अनन्तगुणों का स्वामी एक प्रकाशात्मक अमूर्तिक सत्ताधारी पदार्थ है, कल्पना मात्र नहीं है, नहीं पंचभूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने वाला कोई संयोगी पदार्थ है संसारी दशा में शरीर में रहते हुए भी शरीर से पृथक्, लौकिक विषयों को करता एवं भोगता हुआ भी यह उनका केवल ज्ञाता मात्र है । यद्यपि यह लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी है परन्तु संकोच विस्तार शक्ति के कारण शरीर प्रमाण होकर रहता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि जीव अनन्तानन्त हैं। प्रत्येक संसारी जीव कर्मों से प्रभावित w रहता है । जो जीव साधना कर कर्म श्रृंखला को काट-क्षय कर देता है, वह सदा श्रतीन्द्रिय आनन्द का भोक्ता बन अर्थात् परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर विकल्पों से सर्वथा मुक्त होकर केवल ज्ञाता दृष्टा भाव में स्थिति पाता है। इस प्रकार जीव के लक्षण-स्वरूप को स्थिर करते हुए जैनदर्शन कहता है कि जिस तत्त्व में ज्ञान दर्शनात्मक उपयोग अर्थात् चेतना शक्ति अर्थात् सुख-दुःख अनुकूलता - प्रतिकूलता श्रादि की अनुभूति करने की क्षमता प्रर्थात् स्व और पर का ज्ञान और हित-अहित का विवेक विद्यमान हो, वह वस्तुतः जीव कहलाता है । १० जैनागम में संसारी और मुक्त नामक दो भागों में यह जीव विभक्त है।" संसारी जीवों को भव्यताअभव्यता १२, संज्ञी - असंज्ञी 13, त्रस - स्थावर १४, त्रस-स्थावर १४, बादर-सूक्ष्म १५ बहिर् अन्तर्-परम् श्रात्मा -१९ तथा चार गतियों १७ प्रादि के आधार पर वर्गीकृत कर इसके स्वरूप का वर्णन हमें विस्तार से देखने को मिलता है। जीवस्वरूप से विपरीत लक्षण वाला अर्थात् जड़ प्रचेतन अर्थात् जिसमें चेतना का सर्वथा अभाव हो, वह तस्व प्रजीव है। १६ संसार के समस्त दृश्य भौतिक पदार्थ अजीव कहलाते हैं । जैनागम में श्राध्यात्मिक तथा काय की २० दृष्टि से इसके अनेक भेदप्रभेद किए गए हैं। प्रजीव तत्व के अन्तर्गत आने वाले पुण्य पाप तत्त्व की विवेचना भी जैनदर्शन में वर्णित है। जहाँ मन वचन और काय के शुभ योग की प्रवृत्ति अर्थात् शुभ कर्म पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थिर हो, वहाँ पुण्य तथा जहाँ अशुभ योग की प्रवृत्ति अर्थात् अशुभ कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध की स्थापना हो वहाँ पाप तत्त्व है । २3 ये पुण्य-पाप संसार के वर्धक हैं । जैनागम में पुण्य और पाप तत्त्व उपार्जन के क्रमशः नौ तथा अठारह कारण बताये गये हैं । ४ जिनमें संसारी जीव सदा प्रवृत्त रहता हुआ संसार-सागर में डूबता उतराता रहता है । जैन तात्त्विक क्रम में पुण्य-पाप तत्त्व के बाद प्रस्रव का स्थान निर्धारित है । मन, वचन और काय की वह सब प्रवृत्तियाँ, जिनसे कर्म आत्मा की ओर आकृष्ट होते हैं अर्थात् पुण्य-पाप रूप कर्मों का श्रागमन-द्वार घालव कहलाता है। २५ यह तत्त्व आत्मा के वास्तविक .२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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