SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Jain Educatinternational "एक अर्ज " अर्चना " गुरु चरना, हम कैसे भी हैं पर निभा लेना. " संस्मरण सुखद सौभाग्यकुंवर हिंगड़, दौराई ( अजमेर) महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म० " अर्चना " संसारपक्ष में मेरी लघु भगिनी हैं। इस बात का मुझे बहुत बड़ा गर्व है । इनके जीवन से संबंधित कतिपय अनुभव मैं बताना चाहूँगी सबसे पहिले जब ये माताजी के गर्भ में थे तो माताजी ने नौ ही महीने तक दूध, ग्राम का फल, पान एवं सिके हुए गेहूँ की गुंघरी इन चार चीजों के और पानी के अतिरिक्त और कुछ भी ग्रहण नहीं किया । माताजी की धार्मिक भावना इतनी प्रबल थी कि आपके जन्म के दूसरे दिन भी उपवास किया, ( महाराज श्री का जन्म सम्वत् १९७९ भादवा कृष्ण सप्तमी को हुआ था), दशमी का भी उपवास किया, चौदस को भी उपवास था । भादवा सुदी तीज को माताजी का देहावसान हुआ, उसके एक दिन पहिले भी उपवास ही था । विशेष मुझे कुछ याद नहीं है लेकिन माताजी ने इनको ( महाराज सा० को ) देखकर बहुत बार कहा कि इनके हाथ-पैर कितने बड़े-बड़े और सुन्दर हैं। जब आप तीन बरस के हुए तो दृष्टि दोष के कारण अचानक बीमार हो गए, किसी भी तरह का उपचार कारगर नहीं हुआ । अन्त में वह दिन आया कि बालिका को मृत घोषित कर दिया गया । घर में मातम छा गया, श्मशानघाट ले जाने के लिये लोग इकट्ठे होने लगे । इतने में पीछे के रास्ते से पिताश्री मांगीलालजी जो बहुत समय से अज्ञातवास में थे, आ पहुँचे और वस्त्र से ढ़के हुए शव को उठाकर ऊपर से नीचे की ओर कूद पड़े । गाँव के बाहर जोगियों की एक जमात प्रायी हुई थी, उस जमात के मुखिया महन्त की साधना से ग्रामवासी बहुत प्रभावित थे। क्योंकि जहाँ पर उनकी जमात का पड़ाव था, वहाँ का स्थल एकदम सूखा था, जबकि उनके चारों ओर पानी ही पानी था । पिताश्री शव को लेकर उसके पास आ पहुँचे और शव को रख कर बैठ गये, महन्त ने कहा बहुत देर हो चुकी है, इसे ले जाओ। लेकिन वे वहाँ से हटे नहीं, दृढ़ विश्वास के साथ बोले, यह मर नहीं सकती, मुझे राजज्योतिषी हरिनारायणजी ने इसके महान भविष्य के बारे में बताया और इसको मेरे आत्मकल्याण का निमित्त भी कहा है । महन्त ने चिमटी राख ली और कागज की पुड़िया में सूत के धागे से बालिका के गले में बांध दी। उसी समय चेतना लौट आई और आँखें खुल गई। पिताश्री को खोई हुईं निधि पुनः मिल गई । तत्काल ही वह पुन: पीछे के रास्ते से ऊपर आये और बालिका को यथास्थान पर छोड़ गये और उसी और वापिस लौट गये । तब से हमारे घरवाले एवं गाँव वाले यही कहते हैं, बाई सा० मरकर वापिस जीवित हुए हैं । सन् १९८५ में सखवास For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy