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________________ चतुर्थ खण्ड | २२ मात्मा करता है। जो कर्म आत्मा ने किये हैं वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार उसे फल देते हैं। इसमें किसी भी न्यायाधीश की जरूरत नहीं है। .. हमारे आत्मप्रदेशों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच निमित्तों से हलचल होती है। जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश है, उसी क्षेत्र में कर्म रूप पुद्गल जीव के साथ . बंध जाते हैं। कर्म का यह मेल दूध और पानी जैसा होता है । कर्म-ग्रन्थ में कर्म का लक्षण बताते हुए कहा गया है "कीरह जिएण हेउहिं जोणतो भण्णए कम्म" प्रर्थात कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है वही कम है। कर्म दो प्रकार के होते हैं-एक भाव-कर्म और दूसरा द्रव्य-कर्म । प्रात्मा में राग देष आदि जो विभाव हैं वे विभाव भावकर्म हैं। कर्मवर्गणा के पुद्गलों के सूक्ष्म विकार द्रव्यकर्म कहलाते हैं। भावकर्म का कर्ता उपादान रूप से जीव है, भावकर्म में द्रव्यकर्म निमित्त होता है। और द्रव्यकर्म में भाव कर्म निमित्त होता है। इस प्रकार द्रव्य कम और भाव कर्म दोनों का परस्पर बीज और अंकुर की भांति कार्य-कारण-भाव सम्बन्ध है। संसार में जितने भी जीव हैं प्रात्मस्वरूप की दृष्टि से वे सब एक समान हैं। फिर भी वे भिन्न-भिन्न अनेक योनियों में, अनेक स्थितियों में, शरीर धारण किये हुए हैं। एक अमीर है, दूसरा गरीब है । एक पंडित है तो दूसरा अनपढ़ है। एक सबल है तो दूसरा निर्बल है। एक ही मां के उदर से जन्म लिये युगल बालकों में अन्तर देखा जाता है। कर्म ही इस विचित्रता के मूल में कारण है। जिस प्रकार सुख-दुःख का अनुभव होता है उस प्रकार का अनुभव कर्म के सम्बन्ध में दृष्टिगोचर नहीं होता। __ जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल रूप माना गया है। इसलिए वह साकार है, मूर्त है। कर्म के कार्य भी मूर्त हैं। कारण यदि मूर्त होता है तो कार्य मूर्त ही होगा यह सिद्धान्त है। उदाहरण के लिए कारण रूप मिट्टी मूर्त है तो कार्य रूप घड़ा भी मूर्त ही होता है। यदि कारण अमूर्त है, तो कार्य भी अमूर्त ही होगा। ज्ञान का कारण प्रात्मा है, यहाँ ज्ञान और आत्मा दोनों ही अमूर्त हैं। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि मूर्त्त कर्मों से दुःख सुख प्रादि प्रमूर्त तत्त्वों की उत्पति किस प्रकार संभव है ? सुख दुःख आदि हमारी प्रात्मा के धर्म हैं और प्रात्मा ही उनका उपादान कारण है। कर्म तो केवल सुख दुःख में निमित हैं। अत: जो कुछ उपर्युक्त कर्म के विषय में कहा गया है, वह इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है। यह प्रश्न भी विचारणीय है कि कम तो मूर्त हैं और प्रात्मा अमूर्त है, फिर दोनों का मेल किस प्रकार संभव है, अमूर्त प्रात्मा पर कर्म किस प्रकार प्रभावी हो सकता है ? जिस प्रकार प्रत्यक्ष दिखने वाली मूर्त्त मदिरा का पान करने पर आत्मा के अमूर्त ज्ञान आदि गुणों पर स्पष्टत: प्रभाव पड़ता है, ठीक उसी प्रकार मूर्त कर्मों का अमूर्त प्रात्मा पर प्रभाव पड़ता है। चार्वाक को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन कर्म सिद्धान्त के समर्थक हैं। जीव अनादिकाल से कर्मों के वशीभूत होकर अनेक भव-भ्रमण करता चला आ रहा है। जीवन और मरण दोनों की जड कर्म हैं। इस संसार में सबसे बड़ा दुःख जन्म और मृत्यु ही है । जो जैसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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