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________________ कर्मवाद के आधारभूत सिद्धान्त युवाचार्य डॉ. शिवमुनि ज्ञान एक महान् निधि है, जिसका हमें ज्ञान तो है किन्तु अनुभव नहीं है, इसके बीच में एक रुकावट है। जिसे जैन दर्शन में कर्म कहा गया है। जितनी भी रुकावटें होती हैं, पावरण होते हैं, वे निर्जीव होते हैं, क्योंकि कर्म एक निर्जीव तत्त्व है। अनेक सन्तों, ऋषियों एवं महर्षियों ने इन्हीं आवरणों को दूर करने के लिये प्रयत्न किया है। इन प्रावरणों से छुटकारा पाना ही सब का एकमात्र लक्ष्य है। कोई इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं, कोई लक्ष्य प्राप्त करने के समीप होते हैं। लेकिन ज्ञान को सही रूप में जब तक जाग्रत नहीं किया जायेगा, तब तक आवरणों से मुक्ति नहीं मिल सकती। कौन छूटेगा? किससे छुटेगा? इन प्रश्नों का समाधान प्रावश्यक है। इसीलिए भगवान महावीर ने "पढमं नाणं" का सूत्र दिया है। जिसका अर्थ है प्रथम ज्ञान । यह समझने की चेष्टा होनी चाहिए कि कर्म क्या है ? भगवान् महावीर इस समझने के प्रयत्नों को ज्ञान कहते हैं। अज्ञानी कौन है ? जिसमें यह समझ नहीं है। आवरण के परमाणु जब तक आत्मा को पाच्छन्न किये रहते हैं, तब तक वह परवश रहती है। हमारे चारों ओर जो परमाणुओं का जाल है, वही कर्म-जाल है। इस प्रावरण के मूल कारणों को इस कर्म-जाल के वास्तविक कारण को समझ लेना ही कर्मों से मुक्त होने का प्रथम सूत्र है। कर्म परमाणुओं की भी अपनी एक शक्ति होती है। जैसे-जैसे कर्म हम करते हैं, वे कर्मपरमाणु क्रिया के प्रारंभ से ही अपने स्वभाव के अनुसार चलने लगते हैं। अपने स्वभाव के अनुसार कार्य ही कर्म का फल है। कुछ लोग कर्मफल के विषय में ईश्वर को कर्ता मानते हैं, पर यह सिद्धान्त सही प्रतीत नहीं होता है। जब भगवान् स्वयं कर्मों से रहित है तो फिर वह किसी के कर्मफल के झमेले में क्यों पड़ेगा? गीता में इस विषय पर बड़ा ही सुन्दर विवेचन मिलता है। "न कर्तुत्वं न कर्माणि लेकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफलसंयोग, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥" (गीता) हे अर्जुन ! न मैं कर्म करता हूँ, न ही संसार को बनाता हूँ। जीवों को उनके कर्म का फल भी नहीं देता हूँ । इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है, वह स्वभाव से ही हो रहा है, इससे स्पष्ट होता है कि भगवान् न तो संसार का निर्माण करते हैं और न कर्मों का फल ही देते हैं। कर्म एक प्रकार की शक्ति है और प्रात्मा भी अपने प्रकार की एक शक्ति है । कर्म । धम्मो दीयो संसार समुद्र में चर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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