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________________ चतुर्थ खण्ड / ११० गाथा ११–'जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ । एविन्दियग्गी वि पगाममोइणो,........ जैसे प्रचंड पवन के साथ प्रचर इन्धनवाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता है उसी प्रकार प्रकामभोजी/यथेच्छ भोजन करनेवाले की इन्द्रिय-अग्नि (वासना) शांत नहीं होती है । इसमें उदाहरण तथा 'एविन्दियग्गी' इन्द्रिय-अग्नि में रूपक है। गाथा १३----'जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं बसही पसत्था। एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बम्भयारिस्स खमो निवासो।' -जिस प्रकार बिडालों के निवासस्थान के पास चूहों का रहना हितकर नहीं है वैसे ही स्त्रियों के निवास स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना भी हितकर नहीं है । उदाहरण है। गाथा १७-'जहित्थिओ बालमणोहराओ'-अज्ञानियों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ जितनी दुस्तर हैं धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में अन्य कुछ दुस्तर नहीं है। उदाहरण तथा 'मोक्खाभिकं खिस्स वि माणवस्स' में छेकानुप्रास है। गाथा १८--'जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गंगासमाणा' जैसे महासागर तैरने के बाद गंगा जैसी नदियों को तैरना आसान है वैसे ही स्त्रीविषयक संसर्गों का सम्यक् अतिक्रमण करने पर शेष संबंधों का अतिक्रमण सुखोत्तर हो जाता है। इसमें उदाहरण है। गाथा २०-'जहा य किपाकफला मणोरमा, रसेण बण्णेण य भुज्जमाणा। ते खुड्डए जीविय पच्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥' जैसे किपाक फल रस और रूप-रंग की दृष्टि से देखने और खाने में मनोरम हैं किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं वैसे ही कामगुण भी अन्तिम परिणाम में ऐसे ही होते हैं। इसमें उदाहरण भी तथा उपमा भी (एप्रोवमा)। . गाथा २४-३७-५०-६३-७६-८९-....जह वा पयंगे, आलोयलीले समुवेइ मच्चु । २४' -~-जैसे प्रकाश लोलुप पतंगा प्रकाश-रूप में प्रासक्त होकर मृत्यु को प्राप्त होता है । .....हरिणमिगे व मुद्ध, सद्दे अतित्त समुवेइ मच्चु ।' ३७ । ---जैसे शब्द में अतृप्त/मुग्ध हरिण मृत्यु को प्राप्त होता है । ___....ओसहिगन्धगिद्ध', सप्पे बिलाओ विव निक्खमन्ते' । ५० । -जैसे ओषधि की गंध में आसक्त रागानुरक्त सर्प बिल से निकल कर विनाश को प्राप्त होता है। 'मच्छ जहा आमिसभोगगिद्ध'। ६३ । -जैसे मांस खाने में आसक्त रागातुर मत्स्य कांटे से बींधा जाता है। ....सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे वऽरन्ने ७६॥ -जैसे वन में जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त रागातुर भैंसा मगर के द्वारा पकड़ा जाता है। '....कामगुणेसु गिद्ध, करेणुमग्गावहिए व नागे' । ८९ । . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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