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________________ पंचम खण्ड | १२८ १. पृथक्त्ववितर्क-सविचार-पृथकत्व का अर्थ है भेद । वितर्क का अर्थ है श्रुत । इस ज्ञान में पूर्वगत श्रुत का सहारा लेकर वस्तु के विविध भेदों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिंतन किया जाता है। इस ध्यान में अर्थ--द्रव्य, व्यंजन-शब्द और योग का संक्रमण होता रहता है। ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करते करते शब्द का और शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का चिन्तन करने लगता है। अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येयद्रव्य एक ही होता है, अतः इस दृष्टि से स्थिरता बनी रहती है। अतः इसे ध्यान कहने में कोई बाधा नहीं है। २. एकत्ववितर्क-अविचार-श्रत के अनुसार अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण से रहित एकपर्यायविषयक यह ध्यान होता है । पहले प्रकार के शुक्लध्यान में शब्द, अर्थ और योगों का उलटफेर होता रहता है, किन्तु दूसरे में इतनी विशिष्ट स्थिरता होती है कि उलट-फेर बंद हो जाता है। ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति-निर्वाणगमन का समय सन्निकट मा जाने पर केवली भगवान मनोयोग और वचनयोग तथा बादर-काययोग का निरोध कर लेते हैं। केवल श्वासोच्छ्वास प्रादि सूक्ष्मक्रिया ही शेष रह जाती है। तब जो ध्यान होता है, वह सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति शुक्लध्यान कहलाता है । ४. व्युपरतक्रियाऽनिवृति-शुक्लध्यान की तीसरी दशा अयोगीदशा की प्रथम भूमिका है। उस ध्यान में श्वासोच्छ्वास की क्रिया शेष रहती है। चतुर्थ ध्यान में प्रविष्ट होते वह दशा भी समाप्त हो जाती है। सर्वथा योगों का निरोध करके पर्वत की तरह निश्चल केवली भगवान् जब शैलेशीकरण करते हैं और चौदहवें गुणस्थान की श्रेणी में प्रारूढ होकर अयोगी केवली होते हैं, उस समय यह ध्यान होता है । इसके द्वारा प्रात्मा के साथ शेष रहे चार अघाती कर्म क्षीण हो जाते हैं और केवली भगवान् सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेते हैं। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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