SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1060
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-परम्परा में ध्यान | १२७ पवित्र मंत्राक्षररूप प्रादि पदों का पालम्बन करके जो ध्यान किया जाता है, उसे सिद्धान्त के पारगामी पुरुष 'पदस्थ-ध्यान' कहते हैं। इस ध्यान में अपने इष्ट पदों का जैसे नमस्कार महामंत्र तथा अन्य शास्त्रीय वाक्यों का स्मरण करते हुए साधक उनमें तदाकार होने का प्रयत्न करता है। ३. रूपस्थध्यान सर्वातिशययुक्तस्य केवलज्ञानभास्वतः। अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते ॥ -योगशास्त्र ९७ समस्त अतिशयों से सम्पन्न केवलज्ञान के प्रकाश से युक्त, परम पद को प्राप्त और समवसरण में स्थित अरिहंत भगवान के स्वरूप का पालम्बन करके किया जाने वाला ध्यान 'रूपस्थ-ध्यान' कहलाता है। ४. रूपातीतध्यान अमूर्तस्य चिदानन्दरूपस्य परमात्मनः । निरञ्जनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद्र पजितम् ॥ --योगशास्त्र १०१ निराकार, चैतन्यस्वरूप, निरञ्जन सिद्ध परमात्मा का ध्यान 'रूपातीत-ध्यान' कहलाता है। शक्लध्यान ध्यान की यह परम उज्ज्वल निर्मल दशा है। मन से जब विषय-कषाय दूर हो जाते हैं तो उसकी मलिनता अपने पाप हट जाती है। मन निर्मलता को प्राप्त कर लेता है। इस स्थिति में साधक शरीर पर होने वाले उपसर्गों, परिषहों से तनिक भी प्रभावित नहीं होता है। देहातीत अवस्था प्राप्त कर लेता है। जैसे गजसकमाल मनि के मस्तक पर अंगारे रख देने पर भी वे उस मारणांतिक पीडा से प्रकम्पित और प्रचंचल बने रहकर शुक्लध्यान में लीन रहे। वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले और पूर्वश्रुत के धारक मुनि ही शुक्लध्यान करने में समर्थ होते हैं । अल्प सामर्थ्य वाले मनुष्यों के चित्त में शुक्लध्यान के योग्य स्थिरता नहीं पा सकती। शुक्लध्यान के प्रकार शुक्लध्यान के दो भेद हैं-शुक्ल और परम शुक्ल । पहले के दो शुक्लध्यान पूर्वधर को होते हैं। बाद के दो (परम) शुक्लध्यान केवली भगवान् को होते हैं। पृथक्त्व कत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृतीनि। -तत्त्वार्थसूत्र ९।४१ १. पृथक्त्व-वितर्क, २. एकत्व-वितर्क ३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और ४. व्युपरतक्रियाऽनिवृति, ये चार शुक्लध्यान हैं। आसमस्थ तम आत्मरथमभ तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy