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________________ चतुर्य खण | १६ मेरी पाठ शाखाएँ प्रमुख हैं । मेरे कथन की पुष्टि भगवान् महावीर ने की है ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय. मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म । यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य तथ्य है कि-मेरी सभी शाखा, प्रशाखाएं बंध-उदय-उदीरणा और सत्ता के रूप में प्रवृत्तिशील हैं। ज्ञानावरणीय कर्म-आत्मा के ज्ञान गुण को दबाने की जिसमें सत्ता रही है। इसके पांच विकल्प हैं। दर्शनावरणीय कर्म-सामान्य दर्शन एवं देखने, सुनने, संघने की शक्ति के लिए प्रदरोधक स्वभाव जिसमें रहा हुआ है। इसके ९ भेद हैं। - वेदनीयकर्म-जिन प्रकृतियों के निमित्त से देहधारियों को दुःख तथा सुख का अनुभव हुप्रा करता है । इसके--साता, असाता दो विकल्प हैं। मोहनीय कर्म-यह मेरी प्रमुख शाखा है। यह कर्म देहधारियों को विवेक से भ्रष्ट करने वाला है। जिस प्रकार मदिरापान करने पर उन्हें हिताहित का भान नहीं होता है। उसी प्रकार मोहकर्म के वश होकर आत्मा स्वभाव को भूल जाता है । इसके मुख्य दो विकल्प रहे हैं और उत्तरभेद २८ माने जाते हैं। आयुकर्म-शरीर में जीवात्मा को प्राबद्ध रखना ही इस प्रकृति का काम है। इसके मुख्य चार भेद हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु व देवायु।। नामकर्म-शुभ नाम से अथवा अशुभ नाम से जीवात्मा की पहिचान करवाने वाली प्रकृति, जिसके कारण जीवात्मा की कभी सु-ख्याति तो कभी कु-ख्याति होती है, प्रादि । गोत्रकर्म-यह कर्म देहधारियों को कभी ऊंच श्रेणी में तो कभी नीच श्रेणी में रखता है । इसके २ विकल्प हैं। अन्तरायकर्म-यह भी मेरी प्रमुख शाखा का एक अंग है। दान-लाभ इत्यादि अच्छे कार्यों में विघ्न डालना ही इसे इष्ट है। इसके ५ भेद हैं, आदि । अब मैं (कर्म) आपको जरा गहराई में ले जा रहा हूँ। व्यवहारनय की दृष्टि से मेरे परमाणु प्रात्म-प्रदेशों के साथ एकाकार होकर रहते हैं। ज्ञान व ज्ञानी के प्रति जो आपके मन में शुभाशुभ अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, उस समुद्भूत अध्यवसाय में पुद्गलों को खींचने की एक विलक्षण प्रक्रिया रही हुई है। वे गृहीत परमाणु मेरे ज्ञानावरण बंध के रूप में परिणत हो जाते हैं उस कर्ता के साथ । दुर्भावनावश आपने किसी को अंधा-लूला-लंगड़ा-बहरा कह दिया। बस, दर्शनावरण बंध में प्राप बंध गये। किसी को साता या असाता देने की भावना हुई तो वे आकृष्ट पुद्गल सुख था दुःख वेदनीय कर्म रूप में, रागात्मक या द्वेषात्मक प्रवृत्ति में प्रेरित हुए आपको मोहनीय बंध, बिना मतलब आपने किसी प्राण भूत जीव सत्वों के प्राणों का हनन करने की ठानी तो नीच गति का प्रायु बंध सकता है। मेरे कर्माणु शुभाशुभ नाम कर्म में जब परिणत होंगे तभी किसी की सुख्याति सुनकर आप प्रमुदित होंगे या ईर्ष्यावश जलेंगे। जाति, कुल, परिवार, बल-रूप-वैभव पर गर्वित हो गये या नम्रीभूत बने हुए हैं तो नीच या उच्चगोत्र का बंध पड़ेगा । आप दूसरों के लिए बाधक बनने की भावना से प्रेरित हैं तो निश्चय ही वे आकर्षित पुद्गल अन्तराय कर्म के रूप में परिणत होंगे। इस प्रकार मेरी बंध प्रकृतियों का यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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