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'कर्म : स्वरूपप्रस्तुति / १५
भूल भी करते रहे तथा कर रहे हैं। वे लोग मेरे सही स्वरूप को जानते नहीं और न जानने की जिज्ञासा ही करते हैं।
दरअसल मैं (कर्म) प्रात्मा नहीं हैं, आत्मा से भिन्न मेरा अस्तित्व, जीव की तरह अनादि काल से है । प्रात्म-स्वरूप को ढंकने वाला मैं अवरोधक तत्त्व हूँ। आत्मा अजर-अमर और चैतन्यशील है। मैं चैतन्यशन्य जडधर्मी हैं। पुदगलमय हूँ। मेरी सत्ता लोकाकाशव्यापी है । अलोक में मेरा अस्तित्व नहीं है । पर्यायों की अपेक्षा मेरी सत्ता एकान्त अनित्यता से जुड़ी हुई है। इस कारण मेरा स्वरूप सदा बदलता रहा, बनता रहा, बिगड़ता रहा है, नाना पर्यायों में नाना संस्थानों में और नाना शरीरों में । बनना बिगड़ना मेरा स्वभाव है । जडत्व मेरा लक्षण है। सत् है मुझ में किन्तु चित् और प्रानन्द का मुझ में अभाव है। सत् चित्त
और आनन्द गुण आत्मा में उपलब्ध होते हैं। मेरे भाग्य में चित् और आनन्द कहाँ है ? मैं जडधर्मी हूँ और निरंतर जडत्व में ही मेरा परिणमन होता रहा है।
जैन-बौद्ध-वैदिक प्रभृति संसार के सभी धर्मानुयायियों ने मेरे प्रति गहराईपूर्वक चिंतन किया है। तत्पश्चात् मेरी सत्ता को स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, उन धर्मप्रवर्तकों ने अपने-अपने धर्मग्रंथों में, पंथों व मतों में मुझे स्थान दिया है । सभी ने मुझे "कर्म" कहकर मेरा सम्मान किया है। उन दार्शनिकों को ऐसा कहते हुए भी सुना गया है कि-"शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ फल मिलते हैं। क्योंकि-प्राणियों के कर्म ही सत्य हैं।' इसी कारण मानवों को अच्छे कर्म करना चाहिये और बुरे कर्मों से सदा बचना चाहिये ।
__ जैनदर्शन मेरे सम्बन्ध में अति सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण करता है। यथास्थान प्रस्तुत भी करता रहा है । मेरे एक-एक गूढातिगूढ भेदों उपभेदों को सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने अच्छी तरह से जाना है। इतना ही नहीं, मेरी जड़ें खोलली कर दीं। उन्हें पराजित करने के लिए मैंने चोटी से एड़ी तक पसीना बहाया पर अन्ततः मुझे ही हारना पड़ा। कुछ भी हो, मैं तो स्पष्ट कहने का आदी रहा हूँ। जितना जैनधर्म के प्रवर्तकों ने मेरे सम्बन्ध में लिखा है, प्ररूपित किया है एवं जन मानस को मेरे विषय में सम्यक् प्रकार से समझाने का सत्प्रयास किया है, मेरे वास्तविक स्वरूप को दुनिया के सामने रखा है उतना आज तक किसी ने नहीं किया।
अब आपका ध्यान उस ओर खींच रहा हूँ जिसके कारण मानवों के मस्तिष्कों में भ्रान्तियाँ प्रासन जमाए बैठी हैं। इसका निवारण करना भी मेरे लिए आवश्यक है। वैसे मैं पहले ही कह चका है कि मैं जडधर्मी हुँ। मेरे परमाण स्वयं चलकर जीवात्मा के साथ चिपक जाएँ ऐसी बात नहीं। सरागी-सजीव देहधारियों के संज्ञागत व मनोगत सूक्ष्म किं वा स्थल भावनामों की उभरती-उमड़ती ऊमियों को तरंगों में मेरे कर्माणुओं को अपनी ओर खींचने की चम्बकीय शक्ति रही हुई है। जिस प्रकार शाकाहारी प्राणी जल-पान करते समय जल-कणों को खींचते हैं। वे ग्रहण किये हए चतःस्पर्शी मेरे परमाण शुभाशुभ पर्याय के रूप में प्रात्मप्रदेशों के साथ संश्लिष्ट हो जाते हैं, जुड़ जाते हैं। इसी प्रकार प्रात्मा के साथ मेरा संयोग सम्बन्ध हो जाने के कारण अमुक काल पर्यन्त मेरा अस्तित्व सजीव जैसा बन जाता है ।
१. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति ।
दुच्चिणा कम्मा दुच्चिणफला भवंति ॥ -दशाश्रुत स्कंघ २. कम्मसच्चा ह पाणिणो । --उत्तरा०७/२.
धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है
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