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________________ कर्म: स्टारूप-प्रस्तुति D मेवाड़भूषण पं. श्री प्रतापमलजी म. के शिष्य प्रवर्तक श्री रमेश मुनि म. मैं (कर्म) प्रत्यक्ष देख रहा हूँ और अनुभव कर रहा हूँ, इस वर्तमान युग के सन्दर्भ में कि आज के शिक्षित-प्रशिक्षित, ग्रामीण तथा नगरनिवासी, धनी-निर्धनी सभी मिथ्या धारणामान्यताओं के शिकार होते चले जा रहे हैं, अत्यधिकरूपेण भ्रान्तियों में उलझ रहे हैं। विदिशा (उन्मार्ग) की ओर उनकी गति हो रही है। . इसी कारण अपने बुनियादी यथार्थ सिद्धान्तों, वास्तविक मान्यताओं पर विशेष रूप से आज मैं प्रकाश डालने का प्रयत्न करूंगा, जिससे सदियों से प्रचलित गलत धारणाओं से प्रत्येक प्राणी मुक्त हो सके । साथ ही सूर्य-प्रकाश की तरह मेरा यथार्थ स्वरूप जान सके, मेरा सिद्धान्त दुनिया के समक्ष स्पष्टरूप से आ सके। वैसे बहुत से प्रबुद्ध ज्ञानी मेरी प्रक्रिया को पहिचान गये हैं फिर भी अपने सिद्धान्त की परिपुष्टि करना मेरे लिए अत्यावश्यक हो गया है। सम्पूर्ण सृष्टि अनंत प्रात्मानों से भरा-पूरा एक विशाल सागर है। अतीत काल में अनंत प्रात्माएँ थीं, वर्तमान काल में हैं । उसी प्रकार अनागत काल में अनंत अात्माएँ रहेंगी। उनके अलावा जीवराशि में न अधिक बढ़ने की और न घटने की गुंजाइश है । न नवीन आत्माओं की उत्पत्ति होगी और न विद्यमान आत्माओं का विनाश ही संभव है, चूंकि सत् का कभी विनाश नहीं होता और असत् की कभी उत्पत्ति नहीं । मेरा मतलब संसारी, सशरीरी-सरागी आत्माओं से है न कि अशरीरी-मुक्तात्माओं से । यह कोई दर्पोक्ति नहीं है, अपितु एक यथार्थ बात है। सभी संसारी जीवों पर मेरा पूर्ण प्रभाव है। मेरे प्रभाव से कोई भी संसारी आत्मा मुक्त नहीं है। भले वे प्रात्माएँ एकेन्द्रिय के सूक्ष्म कि वा स्थूल चोले में हो या द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के विशाल बदन में प्राबद्ध हों, भले वे नैरयिक हों, तिथंच गति के प्राणी पशु-पक्षी हों, मर्त्यलोक के मानवी हों और भले वे देवलोक के देवी-देवता देवेन्द्र हों। बिन्दु से सिन्धु तक अर्थात् चक्रवर्ती हो या सूक्ष्म जन्तु हो, सभी मेरे अधीन हैं। सभी पर मेरा आदेश लागू है। सभी मेरे बन्धन में आबद्ध हैं । धृष्टतावश जो भी मेरे आदेश की अवहेलना करते हैं उन्हें विपरीत दशा में भटकना पड़ता है। यह मेरा मिथ्या प्रलाप नहीं, एक तथ्य है। आप देख ही रहे हैं, आप पर भी तो मेरा आधिपत्य है। मैं (कर्म) जब चाहूँ तब आपको भटका सकता हूँ, भ्रमित कर सकता है। रुला सकता हूँ तो हँसा भी। निर्विकारी तथा निराकारी आत्माओं के अतिरिक्त मुझ से कोई भी संसारी आत्माएँ अलग नहीं रह सकती हैं। मेरे साथ सभी के रिश्ते-नाते अनादि काल से हैं । विद्वज्जगत् मुझे कर्म, भाग्य, पुरुषार्थ, पराक्रम, परिश्रम, उद्यम, और क्रियाशीलता इत्यादि नाना नामों से पुकारता रहा है । कतिपय अनभिज्ञ नर-नारी मुझे प्रात्मा मानने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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