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________________ द्वितीय खण्ड / २८ श्रमण की विहारचर्या की अपेक्षा श्रमणियों को विहारचर्या में परीषह-उपसर्गादि अधिक आने की संभावना रहती है क्योंकि एक तो नारीजीवन, दूसरा श्रमण वेष, फिर भी जिनेन्द्रदेव के विशाल-शासन में पूर्वकाल से ही अनेक श्रमणियों ने सुदीर्घ प्रान्तों में लम्बी-लम्बी विहार यात्रा करके वीतराग-वाणी का प्रसार किया है। वीतरागवाणी के प्रसार में उनका स्थान भी महत्त्वपूर्ण है, वे इस कार्य में प्राण-प्रण से जुटी रही । आने वाले परिषहों की उन्होंने कभी भी चिन्ता नहीं की। - देखो, महासती श्री अर्चना को। कितना सौम्य है इनका मुख-मंडल ? अद्भुत विद्वत्ता है इनमें। जैन धर्म व दर्शन के साथ ही भारतीय दर्शन का भी इनको बहुत गहरा ज्ञान है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की ये त्रिवेणी संगम हैं और साथ ही वीतरागीवाणी का प्रसार करने की भावना भी इनमें बहुत है। इसी भावना के वश इन्होंने भारतवर्ष के उत्तरीप्रान्तों में जिन-शासन की प्रभावना करते हुए, काश्मीर तक की सुदीर्घ विहार-यात्रा की है। वीतराग-वाणी का जो ज्ञान प्राप्त किया है उसे जन-जन में फैलाते हए जिन-शासन की सेवा एवं प्रभावना कर रही हैं। कहाँ मारवाड़ प्रदेश और कहाँ काश्मीर ? लेकिन महासतीजी के मन में उमंग थी कि महावीर-वाणी का प्रचार किया जाये और ऐसे सुदीर्घ लम्बे विहार में परिषह कष्टादि आते ही हैं, आये भी होंगे किन्तु दृढ़ निश्चय के सामने वे सब परिषहादि गौण हो जाते हैं। ___मैंने गुरुदेव से पूछा-'गुरुदेव ! आपने भी तो दक्षिण भारत (आंध्र और कर्नाटक तक) की विहार-यात्रा की थी। वीतरागवाणी का प्रसार किया था और स्थानकवासी जैन श्रमणों में सबसे पहले आपने ही उन प्रान्तों की ओर गमन किया था । वे प्रान्त भी तो मालवप्रदेश से हजारों मील की दूरी पर स्थित हैं। आपको भी मार्ग में बाधाएँ तो आई होंगी? गुरुदेव अपनी सहजमुद्रा में मुस्कराते हुए बोले-'भैया ! संतजीवन ही परिषह से युक्त है किन्तु श्रमणी का जीवन, संतजीवन की अपेक्षा कोमल होता है फिर भी श्रमणी-समुदाय ने भी समागत परिषह से घबराकर अपना कदम पीछे नहीं लौटाया। बड़ा भारी योगदान रहा है महावीर संघ को आगे बढ़ाने में श्रमणियों का भी और बड़ी बात तो यह है कि प्रभु महावीर के श्रीसंघ में संतसती, श्रावक-श्राविका दोनों का समान महत्त्व है। जब समान महत्त्व है तो उत्तरदायित्व भी समान है । अतः इस बात को ध्यान में रखकर ही श्रमणियों ने भी अपना अप्रतिम योगदान दिया है, महावीर संघ की धवल कीर्तिध्वजा को फहराने में....'श्रमणीजीवन और उनकी विशालमहिमा के बारे में क्या कहूँ ज्यादा ? जो भी कहा जाय, वह कम ही है।' महासती श्रीअर्चनाजी का जीवन भी बड़ा त्यागमय रहा है । उनकी जीवनकथा 'अग्निपथ' नामक पुस्तक में वर्णित है। उनकी जीवन-कथा ही उनके अद्भुत, साहस, धैर्य, विद्वत्ता, कर्मठता आदि गुणों का परिचय करा देती है और इसीके बल पर वे काश्मीर की घाटियों में वीतरागवाणी की गूंज को रख Jain Education Thiernational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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