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________________ मालवकेसरो श्री सौभाग्यमलजी म. सा. की पावन दृष्टि में ज्ञान-दर्शन-चारित्र को त्रिवेणीसंगम महासती श्रीअर्चनाजी श्रमणीरत्न - मुनि प्रकाशचन्द्र 'निर्भय' --वि० सं०-२०४० -ज्येष्ठ मास पूज्य गुरुदेव मालवकेसरी जैनसुधाकर, प्रसिद्ध वक्ता, सन्तरत्न, शांति के अग्रदूत, परमश्रद्धय पूज्यपाद स्व. श्री सौभाग्यमलजी म. सा. उन दिनों रतलाम (म. प्र.) में विराजमान थे। पूज्य श्रद्धेय ध्यानयोगी, बहुश्रुत, विद्वद्वर्य युवाचार्य प्रवर स्व. श्री मिश्रीमलजी म. सा. उस वर्ष पूज्यप्रवर आचार्यसम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. सा. की सेवा में मारवाड की ओर से विहार करते हए नासिक पधारते समय रतलाम भी पधारे थे। उन्हीं दिनों में काश्मीरप्रचारिका, अध्यात्मयोगिनी, विदुषी विद्वद्वर्या महासती श्री उमरावकुंवरजी म. 'अर्चनाजी' का अपनी शिष्यमण्डली के साथ रतलाम पदार्पण हुआ। पूज्य गुरुदेव मालवकेसरीजी म. सा. के दर्शनार्थ जब महासती श्री "अर्चनाजी" श्रीधर्मदास जैन मित्रमण्डल में पधारे और दर्शन लाभ लिया, उस समय पूज्य गुरुदेव श्री ने श्रीअर्चनाजी के रतलाम पदार्पण पर महती प्रसन्नता व्यक्त की एवं विहार आदि की सुख-शाता पृच्छा की। ___ एक दिन पूज्य गुरुदेव श्री के पास में बैठा था। पूज्य गुरुदेव श्री श्रमणश्रमणी के महिमामय जीवन-प्रसंगों पर अपने विचार फरमा रहे थे। इसी प्रसंग में पूज्य गुरुदेव श्री ने महा. श्री अर्चनाजी के गौरवमय जीवन प्रसंग पर भी कुछ कहा था। जो याद रहा वह इस प्रकार है श्रमणजीवन तपस्यामय होता है । उनके चरण सदा गतिशील रहते हैं । उनका मन शुभभावों में सर्वदा रमण करता रहता है। उनके वचन शुभभावों को पुष्ट करने वाले एवं स्व-पर कल्याणकारी होते हैं। श्रमणजीवन की आराधना करने वाला साधक अपना तो कल्याण करता ही है किन्तु विहारचर्या करते समय समागत जिज्ञासु एवं मुमुक्षु भविजीवों को भी वह वीतराग-वाणी का पान कराकर उन्हें शुद्ध प्रात्मधर्म के पथ पर चलने की प्रेरणा देकर कल्याणकारी मार्ग बताता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwhelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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