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स्थितप्रज्ञ एवं स्थितप्रज्ञता
'भगवद्गीता' में 'स्थितप्रज्ञ' का उतना ही महत्त्व है जितना प्रस्थानत्रयी' में गीता का 'स्थितप्रज्ञ' वर्णन को गीता का हार्द कहा जा सकता है। 'स्थितप्रज्ञ' शब्द का विग्रह होगा - स्थिता प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः' अर्थात् जिसकी प्रज्ञा स्थित (स्थिर) है वह स्थितप्रज्ञ है । 'स्थितप्रश' शब्द में स्थित शब्द जड़ता का सूचक नहीं, अपितु समता का सूचक प्रतीत होता है। यह गीता का अपना विशिष्ट शब्द है। अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण से स्थितप्रज्ञ का स्वरूप समझने की जिज्ञासा प्रकट की तो श्रीकृष्ण ने इस प्रकार समझाया
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ ! मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ २५५ दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेष विगतस्पृहः । वीतरागभय क्रोधः स्थितधीमुळे निरुच्यते ॥ २५६
चतुर्थखण्ड / ९०
हे अर्जुन ! जब साधक अपने मन में स्थित समस्त कामनाओं (भोगेच्छाओं) का त्याग कर देता है तथा अपने आप में संतुष्ट हो जाता है तब वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है । २।५५ जिसका मन दुःखों (दुःखद स्थितियों) में उद्विग्न नहीं होता तथा सुखों (सुखद स्थितियों) में उनको पाने की अभिलाषा नहीं रखता ऐसा राग, भय, एवं क्रोध से रहित मुनि स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। २५६
स्थितप्रज्ञ के उपर्युक्त लक्षण से निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं- (१) वह ( सुखभोग की कामना से रहित होता है ( २ ) वह अपने आप में संतुष्ट रहता है ( ३ ) दु:ख में उद्विग्न नहीं होता तथा सुख की अभिलाषा नहीं रखता अर्थात् दुःख एवं सुख में सम रहता है। (४) वह राग, भव एवं क्रोधादि विकारों से रहित होता है।
गीता में स्थितप्रज्ञ को स्थिरबुद्धि एवं स्थिरमति शब्दों से भी अभिहित किया गया है। स्थिरबुद्धि शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है
न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ गीता ५।२०
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अर्थात् स्थिरबुद्धि मनुष्य असंमूढ एवं ब्रह्मविद् होकर ब्रह्म में स्थित रहता है तथा प्रिय वस्तु को प्राप्त कर हर्षित नहीं होता और अप्रिय वस्तु को प्राप्त कर उद्विग्न नहीं होता । 'स्थिरमति' शब्द का प्रयोग भी स्थितप्रज्ञ के समत्व लक्षण में किया गया है, यथा
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः । शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ गीता १२/१८ तुल्यनिन्दास्तुतिमनी संतुष्टो येन केनचित् । अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान् मे प्रियो नरः ॥ गीता १२ / १९
( शत्रु और मित्र के प्रति सम रहने वाला, सम्मान एवं अपमान में समान रहने वाला, शीत, उष्ण तथा सुख एवं दुःख में सङ्ग (प्रासक्ति) रहित होकर सम रहने वाला, निन्दा एवं प्रशंसा में सम रहने वाला, सर्वथा संतुष्ट रहने वाला मौनी संन्यासी स्थिरमति होता है तथा वह भक्तिसम्पन्न स्थिरमति मनुष्य मेरा प्रिय है ।)
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