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________________ पंचम खण्ड / ४८ चिन्तानिरोध को ध्यान का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है ।" श्राचार्य श्रमितगति ( प्रथम ) विरचित योगसारप्रभूत में ध्यान के लक्षण का निर्देश करते हुए यह कहा है कि ग्रात्मस्वरूप का प्ररूपक रत्नत्रयमय ध्यान किसी एक ही वस्तु में चित्त को स्थिर करने वाले सन्त के होता है, जो उसके कर्मक्षय को करता है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्यानुसारिणी सिद्धसेनगणि विरचित टीका में आगमोक्त विधि के अनुसार वचन, काय और चित्त के निरोध को ध्यान कहा गया अर्चनार्चन है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने ध्यान को सम्यग्दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य के संसर्ग से रहित कहा है । १0 भगवती प्राराधना की विजयोदयाटीका में राग-द्वेष और मिथ्यात्व के सम्पर्क से रहित होकर पदार्थ की यथार्थता को ग्रहण करने वाला जो विषयान्तर के संचार से रहित ज्ञान होता है, उसे ध्यान कहा गया है । वहाँ प्रागे एकाग्र चिन्ता निरोध को भी ध्यान कहा गया है । श्रादि पुराण में स्थिर प्रध्यवसान को एक वस्तु का श्रालम्बन लेने वाले मन को ध्यान कहा गया है Jain Education International ध्यान की आवश्यकता कर्म का सर्वथा विलय होना मोक्ष है। यानी कर्म और दुःख के बन्धन से सर्वथा छूट जाना मोक्ष है और श्रात्मा का भान हुए बिना उसका होना संभव नहीं है । चित्त की साम्यावस्था के बिना संयमी को भी श्रात्मा का भान होना सुलभ नहीं है, चित्त की साम्यावस्था भी मल और विक्षेप को दूर करने वाले शुभ ध्यान के बिना सर्वथा संभव नहीं है । इसलिए संयमधारियों को मोक्षप्राप्ति के लिए परम्परा से धर्मध्यान और शुक्लध्यान का प्राय लेना चाहिए। शुभ ध्यान का फल ग्रात्म-साक्षात्कार है और आत्म-साक्षात्कार मोक्ष का साधन है । इसलिए शास्त्रों में ध्यान की परमावश्यकता बतलाई है। जब तक चित्त ध्यान के द्वारा साम्यावस्था नहीं प्राप्त करता और साम्यावस्था के लिए चित्त के मलविशेष रूपी दोषों का नाश नहीं होता तब तक मुमुक्षु को आत्मा का भान नहीं होता । १ ३ इसीलिए कहा है--जो कोई सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं और सिद्ध होंगे वे सब शुभाशय वाले ध्यानतप के बल से ही सिद्धता प्राप्त करते हैं । १४ निर्जरा करने में बाह्यतप से प्राभ्यान्तर तप श्रेष्ठ है, इसमें भी ध्यानतप ८. तत्त्वानुशासन - ५६ ९. ध्यानशतक तथा ध्यानस्तव प्रस्ता० पृ० २७ उद्धृत १०. दंसण- णाणसमग्गं झाणं णो प्रण्णदव्वसंजुत्तं । - पंचा० का० १५२ ११. भगवती आराधना विजयोदयाटीका - २१ व ७० १२. प्रदिपुराण २१-९ १३. मोक्षः कर्मक्षयात्मकः स च भवेनैवात्मभानं विना । तम्दानं सुलभं भवे न यमिनां चित्तस्य साम्यं विना ॥ साम्यं सिद्ध्यति नैव शुद्धिजनकं ध्यानं विना सर्वथा । तस्माद् ध्यानयुगं श्रयेन्मुनिवरो धर्म्यं च शुक्लं पुनः ॥ कर्तव्यकौमुदी, २०१५५४ १४. सिद्धाः सिद्धयन्ति सेत्स्यन्ति यावन्तः केऽपि मानवाः । ध्यानतपोबलेनैव ते सर्वेऽपि शुभशयाः ॥ -वही ५५५ पृ० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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