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________________ पंचम खण्ड | ७८ इच्छायोग में अवस्थित साधक को इस बात के लिए सदा प्रयत्नशील रहना होगा कि वह पद-पद पर आने वाले प्रमाद का सामना करे, उसे अपने पर हावी न होने दे। ऐसा करने के लिए उसे सतत अन्तर्जागरित रहना होगा। ज्यों-ज्यों वह अपने प्रयत्न में सफल होता जायेगा, उसकी साधना गति पकड़ती जायेगी। अर्चनार्चन शास्त्रयोग साधक की एक ऐसी भूमिका होती है, जहां वह यथाशक्ति अप्रमादावस्था साध लेता है, शास्त्र का उसे तीव्र बोध होता है, आगम तथा काल आदि की दृष्टि से उसका योग अविकल-अखण्ड होता है।' शास्त्रयोग में शास्त्रज्ञान की प्रधानता है। प्रागमज्ञान या श्रुत-बोध उसमें इतनी तीव्रता लिए होता है, उसमें इतना कौशल और नैपुण्य होता है कि उसकी अपेक्षा से वह योग अविकल या अखण्ड स्थिति पा लेता है। जिनकी शास्त्रज्ञता इतनी गहन होती है, वे अपने द्वारा प्राचरित कार्यों के यथार्थपन और अयथार्थपन की भलीभांति जानकारी रखते हैं । फलतः वे जागरूक रहते हैं तथा सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अतिचार का सेवन नहीं करते। ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार का ऐसे साधक अविकल रूप में पालन करते हैं। इनके समय, पद्धति, विधि आदि का उन्हें यथावत् ज्ञान होता है, जिससे वे ठीक पालन करने में सक्षम होते हैं। उनका वैसा आचरण त्रुटि-शून्य या विकलता-रहित-अखण्ड होता है। इसलिए शास्त्रयोग को अविकल कहा गया है। "शास्ति इति शास्त्रम"-जो शासन करता है, आदेश करता है, उसे शास्त्र कहा जाता है। शास्त्र करने योग्य कार्य का आदेश करता है। शास्तापुरुष, प्राप्तपुरुष या प्रमाणभूत पुरुष का वचन भी शास्त्र कहा जाता है । क्योंकि वह कार्य-प्रकार्य का, विवेकपूर्वक कार्यकरने योग्य का विधान करता है। शासन का-शास्त्र का अर्थ त्राण या रक्षा करने वाला भी है। संसार के आवागमन, जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाकर शास्त्र शाश्वत सुख का मार्ग बताता है। इस प्रकार वह जागतिक भय से बचाव करता है। जिन्होंने राग, द्वेष, वासना, लोभ, मोह जैसी वत्तियों का सम्पूर्ण रूपेण उच्छेद कर सर्वज्ञत्व प्राप्त कर लिया है, वे ऐसी वाणी बोलते हैं, जो सत्य, तथ्य तथा त्रिकालाबाधित होती है। उनकी वाणी प्राप्तवचन या शास्त्र कोटि में प्राती है। ज्ञान का कोई पार नहीं है। शास्त्र महासागर की तरह विशाल है। उसका पार पाना निश्चय ही दुष्कर है । क्षयोपशम, अभ्यास तथा सद्गुरु के अनुग्रह से शास्त्रयोगी शास्त्रसागर को एक अपेक्षा से पार कर चुका होता है। वैसे शास्त्र के मूल रहस्य को जो एक शुद्ध प्रात्मा के रूप में अवस्थित है, जान लेता है, वह शास्त्र का नवनीत पा लेता है। प्राचार्य कंदकंद ने तो यहाँ तक लिखा है १. शास्त्रयोगस्त्विह ज्ञेयो यथाशक्त्यप्रमादिनः । श्राद्धस्य तीव्रबोधेन वचसाऽविकलस्तथा ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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