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________________ योगदृष्टिसमुच्चय : एक विश्लेषण / ७७ "तुम्हारा शरीर परिजीर्ण हुमा जा रहा है, केश पक कर सफेद बनते जा रहे हैं, तुम्हारे कानों की शक्ति तथा अन्य इन्द्रियों की शक्ति ह्रास पाती जा रही है, क्या नहीं देखते ? क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत करो।"' __ "जिस प्रकार कमल शरद्ऋतु के निर्मल जल से भी अलिप्त रहता है, उसी प्रकार तुम आसक्तियों से अलिप्त रहो, ऊँचे उठ जागो, स्नेह-रागात्मक बन्धनों का वर्जन कर डालोउनका परित्याग कर दो। यह तभी होगा, जब तुम क्षण भर के लिए भी प्रमाद नहीं करोगे।"२ "तुम कंटकाकीर्ण मार्ग को छोड़कर विशुद्ध महापथ पर आये हो। क्षण भर भी प्रमाद किये बिना विशुद्ध भाव से इस पर बढ़ते रहो। "जैसे कोई निर्बल भारवाहक ऊबड़-खाबड़ मार्ग में पड़कर पश्चात्ताप करता है, कहीं तुमको भी बाद में वैसा न करना पड़े। इसलिए क्षण भर भी प्रमाद मत करो।" भगवान महावीर ने गौतम को संबोधित कर उपर्युक्त बातें कही थीं, जो प्राणी मात्र के लिए लागू हैं। वास्तव में गौतम तो निमित्तमात्र थे। भगवान महावीर का उपदेश तो सभी के लिए था। प्राचारांगसूत्र में कहा गया है-प्रमत्त या प्रमादी को सब ओर से भय ही भय रहता है। अप्रमत्त या अप्रमादी को किसी ओर से भय नहीं रहता, वह सर्वथा निर्भय रहता है। अन्यान्य शास्त्रों में भी प्रमाद को अनर्थमूलक एवं हानिकारक बताया गया है। प्राचार्य शंकर ने प्रमाद की बड़े प्रोजस्वी शब्दों में भर्त्सना की है "ज्ञानी के लिए प्रमाद से बढ़कर कोई दूसरा अनर्थ नहीं है। प्रमाद से मोह उत्पन्न होता है। मोह से अहंबुद्धि पैदा होती है, उससे बन्ध निष्पन्न होता है, जिसका परिणाम व्यथा-वेदना या संक्लेश है।"५ १. परिजरइ ते सरीरयं, केसा पंडरया हवंति ते । से सोयबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए । -उत्तराध्ययनसूत्र १०.२१ २. वच्छिदं सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए ।। -उत्तराध्ययनसूत्र १०.२८ ३. प्रवसोहिय कंटगापह, प्रोइण्णो सि पहं महालयं । गच्छसि मग्गं विसोहिया, समयं गोयम ! मा पमायए । अबले जह भारवाहए, मा मग्गे विसमे वगाहिया । पच्छा पच्छाणतावए, समयं गोयम ! मा पमायए ।। -उत्तराध्ययनसूत्र १०.३२,३३ ४. सव्वनो पमत्तस्स भयं सव्वो अपमत्तस्स नत्थि भयं । --आचारांग के सूक्त, अंक ६३, पृ. १६४ ५. न प्रमादादनर्थोऽन्यो ज्ञानिनो स्वस्वरूपतः । ततो मोहस्ततोऽहंधीस्ततो बंधस्ततो व्यथा ॥ -विवेकचडामणि आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.ainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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