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अर्चनार्चन / १६
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महान् योगनिष्ठ, तत्त्वनिष्ठ प्राचार्य प्राप्त हुए, जिन्होंने विद्या, साधना तथा विपुल साहित्यसर्जन द्वारा भारतीय चिन्तनधारा, संस्कृति, साहित्य एवं दर्शन को अप्रतिम योगदान किया, इसका श्रेय महामहिमान्विता याकिनी महत्तरा को है। जैन-शासन की अनन्य प्रभाविका इसी महान नारी ने प्राचार्य हरिभद्र को जैन तत्त्वज्ञान एवं प्राचार विधा की ओर प्रेरित किया। प्रेरित भी ऐसा किया कि उन्होंने सर्वतोभावेन अपना जीवन जैन संस्कृति एवं धर्म के पुनरुत्थान, विकास, उन्नयन एवं संवर्धन में लगा दिया।
प्राचार्य हरिभद्र ने इस महाकल्याणी, तपःपूत महनीय साधिका के उपकार से अपने को कृतकृत्य माना। उन्होंने उसे धर्ममाता के रूप में स्वीकार किया। हरिभद्र की प्रत्येक कृति में रचनाकार के रूप में उल्लिखित उनके नाम के साथ "याकिनी-महत्तरा-सूनु" विशेषण उनके महान् कृतज्ञभाव को गौरवपूर्वक उजागर करता है।
साध्वी याकिनी का तत्कालीन समाज में, धर्म-संघ में कितना बड़ा महत्त्व था, यह उनके नाम के साथ संलग्न 'महत्तरा' पद से स्पष्ट है। महत्तरा का विरुद केवल उन गरिमामण्डित साध्वियों को प्राप्त था, जो तत्त्वज्ञान, शुद्धचर्या तथा धर्मप्रभावना के विराट् अभियान में समर्पित थीं।
साध्वीवृन्द के उत्कर्ष का यह क्रम सदा ज्वलन्त रहा, कभी धूमिल नहीं हुआ। जैन परम्परा की जिस शाखा से हम सम्बद्ध हैं, यदि उसके परम यशस्वी इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ऐसी अनेक तपोमयी, वैराग्यमयी, धर्मोन्नतिकरी, संघोन्नतिकरी साध्वियों के परिचय में आते हैं, जो अध्यात्म, संयम, साधना और सेवा के लिए सर्वात्मना समर्पित रहीं। ऐसे साध्वीवृन्द में महासती श्री फतेहकुंवरजी, महासती श्री चंपाकुंवरजी महासती श्री रायकुंवरजी, महासती श्री चौथांजी एवं महासती श्री सरदारकुंवरजी का स्थान अत्यन्त गरिमामंडित रहा है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' सूत्र उनके जीवन में सर्वथा फलित रहा। तत्त्व-ज्ञान में वे स्वभावतः रुचिशीला थीं। उस दिशा में प्रयत्नशीला थीं। शास्त्रानुशीलन मानो उनका व्यसन था, जिसके बिना वे रह ही नहीं सकती थीं। वे हलुककर्मा थीं। उनकी वृत्ति पापभीरुतामय थी। शास्त्रानुमोदित चारित्य के अनुसरण, सम्यक् परिपालन, उत्तम क्रियाओं के सदनुष्ठान में वे सतत जागरूक थीं । वास्तव में उनका जीवन धार्मिक जगत् के लिए आदर्श था।
महासतीजी श्री फतेहकुवरजी महासती अखुजी की पुत्री एवं शिष्या थीं। आप स्वाध्यायप्रिय, आगमानुशीलनरत पुण्यात्मा थीं। उनकी लेखन-कला एवं लेखन-शक्ति अद्भुत थी। . उन्होंने एक ही कलम से बत्तीसों आगमों का दो बार लेखन किया । उस महान साधनाशील नारी की कर्मठता, मन:स्थिरता, अपरिश्रान्त उद्यमशीलता की जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है । लेखन का समय सं० १८५१-५७ का रहा।
महासती श्रीचंपाकुंवरजी एक महान् धर्मप्रभाविका श्रमणी थीं। जिन-धर्म को जन-जन तक पहुंचाने में योग्यतम साध्वियां तैयार करने में उन्होंने जो किया, वह सर्वथा स्तुत्य है, स्तुत्य रहेगा।
आई घड़ी अभिनंदन । चरण कमल के वंदन की
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