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________________ चतुर्थ खण्ड / १०६ गाथा ३७–'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममितं च, दुप्पट्रिय-सुप्पट्रिओ॥' छेकानुप्रास, यमक, रूपक तथा विरोधाभास है। गाथा ४२–'पोल्ले व मुट्ठी जह से असारे, अयन्तिए कूडकहावणे वा। ___ राढामणी वेरुलियप्पगासे, अमहग्घए होइ य जाणएसु ॥' जो पोली (खाली) मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे सिक्के की तरह अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकने वाली तुच्छ राढ़ामणि-काचमणि है—इनमें उपमा अलंकार है। गाथा ४४–'विसं तु पीयं जह कालकूडं'–पिया हुअा कालकूट विष ; 'हणाइ सत्वं जह कुग्गहीयं'-उलटा पकड़ा शस्त्र; 'हणाइ वेयाल इवाविपन्नो'-अनियंत्रित वेताल जैसे विनाशकारी है, वैसे ही 'एसे व धम्मो विसओववन्नो' विषय-विकारों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है । इस गाथा में उदाहरण तथा 'जह' शब्द की दो बार प्रावत्ति है, अत: यमक है। __गाथा ४७–'अग्गी विवा सव्वभक्खी भवित्ता'-अग्नि की भांति सर्वभक्षी। इसमें उपमा अलंकार है। गाथा ५०–'कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरटुसोया परियावमेइ ।' जैसे भोगरसों में प्रासक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी (गीध) पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है । इसमें उदाहरणालंकार है। अध्ययन २१-गाथा १४–'सीहो व सद्देण न संतसेज्जा'-सिंह की भांति भयोत्पादक शब्द को सुनकर भी संत्रस्त न हो। उपमालंकार । गाथा १७–'संगामसीसे इव नागराया-नागराज हाथी की तरह व्यथित न हो। उपमालकार । गाथा १९–'मेरुव्व वाएण अकम्पमाणो' वायु से अकंपित मेरु को तरह । उपमालंकार। गाथा २३---'ओभासई सूरिए वऽन्तलिक्खे'--अन्तरिक्ष में सूर्य की भाँति धर्मसंघ में प्रकाशमान होता है । उपमालंकार । गाथा २४–'तरित्ता समुदं व महाभवोघ'—समुद्र की भाँति विशाल संसारप्रवाह को तैर कर मोक्ष में गए। उपमा । अध्ययन २२--गाथा ६-'झसोयरो'-मछली जैसा कोमल उदर । उपमालंकार । गाथा ७-'विज्जुसोयामणिप्पभा'--विद्युत् के प्रभाव के समान शरीर की कांति । उपमालंकार । गाथा ३०-..."भमरसन्निभे, कुच्च-फणग-पसाहिए'-कूर्च और कंघी से संवारे भौरे जैसे काले केश । उपमा । गाथा ४१–'जइ' शब्द दो बार आया अतः यमक है । रूप की उपमा में कहा है'रूवेण वेसमणो, ललिएण नलकूबरो""सक्खं पुरंदरो।' गाथा ४२-~-'पक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छंति वन्तयं भोत्त, कुले जाया अगंधणे ॥' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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