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________________ आलंकारिक दष्टि के श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / १०७ अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प, धूम की ध्वजा वाली, प्रज्ज्वलित, भयंकर, दुष्प्रवेश अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं किन्तु वमन किए हुए अपने विष को पुन: पोने की इच्छा नहीं करते हैं । इसमें उपमा (धूम की ध्वजा) की, उदाहरण, विरोधाभास है। गाथा ४४-'मा कुले गंधणा होमो-हम कुल में गन्धन सर्प की तरह न बनें। उपमालंकार । गाथा ४५-'वायाविद्धो व्व हडो'–वायु से कंपित हड़ (वनस्पतिविशेष) की तरह अस्थिरात्मा । उपमालंकार 'जा-जा' में यमक । गाथा ४६----'गोवालो-भंडवालो वा, जहा तद्दन्वऽणिस्सरो। एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ॥' जैसे गोपाल और भाण्डपाल गायों और किराने आदि का स्वामी नहीं होता है वैसे ही तू भी श्रामण्य का स्वामी नहीं होगा। उदाहरण । गोवालो-भंडवालो में छेकानुप्रास तथा अणिस्सरो दो बार पाया, अतः यमकालंकार है । गाथा ४८--'अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ'--जैसे अंकूश से हाथी स्थिर हो जाता है वैसे ही रथनेमि संयम/धर्म में स्थिर हो गया । उदाहरण । अध्ययन २३-गाथा १८--'चंदसूर-समप्पमा'-चंद्र और सूर्य की तरह सुशोभित। उपमा। गाथा ३६----'जिए' 'जिया' शब्द दो-दो बार आये, अत: यमक । गाया ४३-'रागद्दोसादओ तिव्वा, नेहपासा भयंकरा'तीव्र रागद्वेषादि और स्नेह भयंकर बन्धन हैं। रूपक । गाथा ४८–'भवतण्हा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया'-भवतृष्णा ही भयंकर लता है उसके भयंकर परिपाक वाले फल लगते हैं । रूपक । गाथा ५३–'कसाया अग्गिणो'–कषाय अग्नियां हैं तथा 'सुय-सील-तवो जलं' श्रत, शील और तप जल हैं। रूपक । गाथा ५६ तथा ५८–'सुयरस्सीसमाहियं'–श्रुतरूपी रश्मि/रस्सी/लगाम से 'मणो.... दुट्ठस्सो' मन रूपी घोड़ा वश में करता हूँ। रूपक । गाथा ६३–'सम्मग्गं तु जिणक्खायं' सन्मार्ग जिनोपद्दिष्ट है । रूपक । गाथा ६८-'धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई-सरणमुत्तमं ।' धर्म ही द्वीप है, प्रतिष्ठा है, गति और उत्तम शरण है । रूपकालंकार । गाथा ७३---'सरीरमाहु नाव त्ति, जीवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो, जं तरन्ति महेसिणो॥ शरीर नौका है, जीव नाविक है, संसार समुद्र है जिसे महर्षि तैर जाते हैं। इस गाथा में रूपक अलंकार का भव्य चित्रण है। गाथा ७५-'जिणभक्खरो'-जिनरूपी भास्कर सूर्य । रूपकालंकार । अध्ययन २४-गाथा १-'पवयणमायाओ' जिन-प्रवचन रूप माता । रूपकालंकार । धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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