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________________ RA CHREE चतुर्थ खण्ड / १०८ । PARA RANJ अध्ययन २५--गाथा १-'जमजन्नमि'-यमरूप यज्ञ । रूपक' । ___गाथा १६–'अग्निहोत्तमुहा वेया, जन्नट्ठी वेयसां मुहं । नक्खत्ताण मुहं चन्दो, धम्माणं कासवो मुहं ॥ वेदों का मुख अग्निहोत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र और धर्मो का मुख काश्यप है। इसमें रूपकालंकार है । 'मुहं' शब्द तीन बार पाया, अत: यमक । Sोप गाथा १७–'जहा चंदं गहाईया, चिट्ठन्ति पंजलीउडा। वन्दमाणा नमसंता, उत्तम मणहारिणो ॥' जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चंद्र की वंदना तथा नमस्कार करते हुए स्थित हैं, वैसे ही भगवान ऋषभदेव हैं----उनके समक्ष भी जनता विनयावनत है। उदाहरणालंकार। गाथा १५- 'भासच्छन्नाइवऽग्गिणो'----जैसे अग्नि राख से ढंकी हुई होती है वैसे ही वे प्राच्छादित हैं यज्ञवादी स्वाध्याय और तप से आच्छादित हैं । उदाहरणालंकार । गाथा १९-'अग्गी वा महिओ जहा'-अग्नि के समान पूजनीय । उदाहरण । गाथा २१–'जायरूवं जहाम, निद्धन्तमलपावगं'-कसौटी पर कसे और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए / शुद्ध किए गए सोने की तरह जो विशुद्ध है। उदाहरण । गाथा २७–'जहा पोम जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा'-जिस प्रकार जल में उत्पन्न हा कमल जल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। उदाहरण । गाथा ४०---'मा भमिहिसि भयाव?' भय के प्रावर्तवाले । संसार सागर । रूपक । गाथा ४२-४३--गीला और सूखा दो मिट्टी के गोले दिवार पर फेंके। गीला चिपक जाता है और सूखा नहीं चिपकता है, वैसे ही प्रासक्त जीव विषयों में चिपक जाते हैं विरक्त नहीं। दृष्टान्त और यमक 'उल्लो, सुक्को,' शब्द में, जो दो-दो बार आये हैं। अध्याय २६-गाथा १ तथा ५३.---'तिण्णा संसारसागरं'-संसार रूपी सागर । रूपक। अध्ययन २७-गाथा २-'वहणे वहमाणस्स, कंतारं अइवत्तई। जोए वहमाणस्स, संसारो अइवत्तई ॥' शकटादि वाहन को ठीक तरह वहन करनेवाला बैल जैसे कान्तार को सुखपूर्वक पार कर जाता है उसी तरह योग-संयम में संलग्न मुनि संसार को पार कर जाता है। इसमें उदाहरण तथा यमक, रूपक तथा पुनरुक्ति द्रष्टव्य है । गाथा ७-८-'खलुका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा। . जोइया धम्मजाणम्मि, भज्जति धिइदुब्बला ॥' अयोग्य बैल जैसे वाहन को तोड़ देते हैं वैसे ही धैर्य में कमजोर शिष्यों को धर्मभाव में जोतने पर वे भी उसे तोड़ देते हैं। दृष्टान्त तथा 'धम्मजाणम्मि' रूपक है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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