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________________ पंचम खण्ड | १७६ अर्चनार्चन परामनोविज्ञान के अन्तर्गत राजस्थान विश्व विद्यालय के हेमेन्द्र नाथ बनर्जी ने प्रेतावेश एवं द्विविध की सैकड़ों घटनामों का अध्ययन कर परकायप्रवेश की प्रामाणिकता सिद्ध की है। योग की साधना द्वारा जिन सिद्धियों और शक्तियों को प्राप्त किया जाता है उनके द्वारा जो साक्षात्कार कर पाना सम्भव हो जाता है उसीका परामनोविज्ञान में वैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाता है। योगसाधना और सिद्धि का क्रियाविज्ञान है जबकि परामनोविज्ञान मृत्यु के बाद प्रात्मा के अस्तित्व के रहस्यों का जानने का प्रयोगात्मक विज्ञान है। दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। योग के निष्कर्षों को परामनोविज्ञान अपने प्रयोगों द्वारा प्रामाणिक सिद्ध करता है। परमनोविज्ञान जिन रहस्यों का अध्ययन कर रहा है, योग उन्हें स्पष्ट करने के लिये सिद्धियाँ व शक्तियाँ अजित करने का अवसर प्रदान करता है। योग हो या परामनोविज्ञान अथवा अन्य कोई विज्ञान, हर विज्ञान का लक्ष्य सत्य को प्राप्त करना होता है। सत्य को प्राप्त करने के लिये ही परामनोविज्ञान में मृतात्मानों को बलाकर उनसे प्रश्नोत्तर किये जाते हैं। पुनर्जन्म के लिये जिन्हें पूर्वजन्म का स्मरण है उनसे सम्पर्क किया जाता है। जबकि योग में आत्मा और परमात्मा के साक्षात्कार से सत्य को जानने का प्रयास किया जाता है। व्यक्ति का अपना सत्य वास्तव में सत्य के विषय में उसकी धारणा मात्र होने से सत्य का एक अंश ही होता है । जो एक व्यक्ति के लिये पूर्ण सत्य होता है वह दूसरे व्यक्ति के लिये दृष्टिकोण से अन्यथा हो सकता है। सबको मिलाकर पूर्ण सत्य बनता है। सुकरात के अनुसार एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से राग-द्वेष, वेष-भूषा, प्राचार-विचार में कितना ही भिन्न हो, सब व्यक्तियों में एक ही समान तत्त्व विद्यमान है, जो कि उनके विशेषणों के प्राडम्बरों से प्रावृत रहता है, किन्तु उसे ढूंढ़ा जा सकता है। यह समानता तत्त्व मानव का आत्मा है। इसे जानना ही जीवन के शाश्वत सत्य को जान लेना है। जैनदर्शन का स्याद्वाद-अनेकान्तवाद की संभावनाओं से सत्य के साक्षात्कार का सिद्धान्त है जिसके अनुसार अपेक्षाभेद से एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दृष्टिकोणों की सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। योग शताब्दियों के साधनाक्रम में आज एक परिष्कृत विज्ञान है जिसके अष्टांगों की साधना विश्व के अनेक देशों में तत्र यत्र की जा रही है। परामनोविज्ञान के प्रयोगों से सत्य के साक्षात्कार का प्रयत्न चल रहा है। निश्चय ही दोनों के समन्वय से सत्य का साक्षात्कार होगा और रहस्यों के प्रावरण से सत्य के सूर्य का उदय होगा जो तथ्यात्मक विश्लेषण द्वारा ज्ञान के नये क्षितिजों का निर्माण करने में समर्थ होगा। इससे आध्यात्मिकता का तेज विकसित होगा, जिसके आलोक में मानवता के मंगलमय भविष्य की कल्पना की जा सकती है। साहित्य-संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, टाऊन हाल के पास, उदयपुर 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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