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________________ योग और परामनोविज्ञान प्रहलादनारायण वाजपेयी परामनोविज्ञान याधुनिक विज्ञान है जिसमें वैज्ञानिक रीति से मनुष्य के स्वरूप उसकी अद्भुत शक्तियाँ, मृत्यु का स्वरूप, मृत्यु के पश्चात् जीवन, परलोक पुनर्जन्म यादि विषयों का अध्ययन किया जाता है, गहन गवेषणा की जाती है । परामनोविज्ञान के निष्कर्षों में यह कहा गया है कि मनुष्य इस भौतिक शरीर के अतिरिक्त और शरीर द्वारा कार्य करने वाला एक आध्यात्मिक प्राणी है, जिसमें अनेक अद्भुत मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ - जैसे दिव्यदृष्टि, अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष, मनःप्रलय ज्ञान, दूर किया, प्रच्छन संवेदन, पूर्वबोध आदि हैं। मृत्यु प्राणी को नष्ट नहीं कर पाती। उसका अस्तित्व किसी धन्य सूक्ष्म लोक में सूक्ष्म रूप से रहता है, जहाँ रहते हुए वह इस लोक में रहने वाले प्राणियों के सम्पर्क में श्रा सकता है । डॉ. क्रूकाल ने सहस्रों घटनाओं का निरीक्षण करके इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, प्रत्येक प्राणी के अन्दर सूक्ष्म शरीर होता है, जो कुछ अवसरों पर विशेषतः मृत्यु के अवसर पर इस पञ्च भौतिक शरीर को छोड़ कर बाहर निकल जाता है । परलोक में प्राणी इस सूक्ष्म शरीर द्वारा ही वहाँ के जीवन और भोगों को भोगता है । योग का भारतीय संस्कृति में साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण वैशिष्ट्य है। योग के अष्टांगों की साधना करने वाले के लिये सम्पूर्ण सृष्टि का हस्तामलकवत् साक्षात्कार कर पाना सम्भव हो जाता है । परकायाप्रवेश को यौगिक सिद्धियों में अन्यतम माना गया है । महर्षि पतञ्जलि के अनुसार धर्माधर्म सकाम कर्मरूपी बन्धनों के कारण से शिथिल करने से एवं इन्द्रियों के द्वारा विषयों में चित्त को प्रवाहित करने वाली चित्तवहा नाड़ी के स्वरूप एवं चित्त के परिभ्रमण मार्ग को याद कर लेने से साधक के चित्त का दूसरे जीवित या मृत व्यक्ति के शरीर में प्रवेश हो जाता है। 'बन्धकारण बिस्वात् प्रचारसंवेदनाच्च चित्तस्य परशरीरावेश: ।' शौनक ऋषि के अनुसार परकायप्रवेश की सिद्धि के लिये सुषुम्णादि सप्त सूक्त एवं निवर्तध्वम् से प्रारम्भ होने वाले सप्त सूक्तों का पाठ करना चाहिये। शौनक ऋषि के अनुसार परकायाप्रवेश की साधना मार्गशीर्ष मास में प्रारम्भ की जानी चाहिये और ग्यारह मासों के अनन्तर परकायाप्रवेश की साधना फलवती होती है । Jain Education International सुषुम्णादि सप्त सुतानि जपेच्चेद्विष्णुमन्दिरे । मार्गशीर्षेऽयुतं धीमान् परकायं प्रवेशयेत् । निवर्तध्वं जपेत् सूक्तं परकायाञ्च निर्गतः । For Private & Personal Use Only आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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