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________________ पंचम खण्ड / ३६ अर्चनार्चन सति' सूत्रों में अति साम्य है। योगदर्शन के इन सूत्रों का मर्म प्रकट करने में पानापानसति के सूत्र बड़े उपयोगी हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। 'पानापानसति' के अभ्यास से जैसे-जैसे चित्त श्वास के आवागमन का अवलोकन करते हए शान्त होता जाता है, वैसे-वैसे श्वास की गति स्वतः धीमी, मंद, सूक्ष्म होती जाती है अर्थात् श्वास की गति का विच्छेद होता जाता है, प्राणायाम सधता जाता है। प्राणायाम या पानापान से चित्त शांत व स्थिर होता है। चित्त की शांति व स्थिरता को बौद्धधर्म में समाधि कहा है । जैनधर्म के अनुसार यहाँ तक संवर की साधना पूर्ण हुई। प्रत्याहार-बाह्मतप : कर्म कृश करने की प्रक्रिया पूर्वोक्त साधना के क्रम में 'नियम' से इन्द्रियों की प्रवृत्तियों का संकोच हुअा और 'प्राणायाम' से इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को रोका गया। इस प्रकार इन्द्रिय विषयों से नवीन राग (कर्म-संस्कार) उत्पन्न होना रुका तथा इन्द्रियों का विषयों के सम्मुख होना रुका, इससे नवीन कर्म-बंध होना रुका अर्थात् संवर की प्रक्रिया हुई। परन्तु वर्तमान में जो राग विद्यमान है, उसके क्षय के लिए उसे कसना, कृश करना आवश्यक है। विषयों के विद्यमान राग को कृश करने की, विषयों से विमुख होने की प्रक्रिया को तप कहा जाता है । जैनदर्शन में तप दो प्रकार का कहा है-बाह्यतप और आभ्यंतर तप विषयों से विमुख होने की, उन्हें कृश करने की क्रिया बाह्यतप है । बाह्यतप के छः भेद हैं-- अनशन, ऊनोदरी, वत्तिप्रत्याख्यान, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग कायक्लेश और प्रतिसंलीनता। १. अनशन-पाहार न करना अनशन कहा जाता है। प्राहार त्याग से यहाँ अभिप्राय रसनेन्द्रिय के आहार-अन्न-जल आदि भोजन का त्याग तो है ही, साथ ही शेष इन्द्रियों कान, आँख, नाक, स्पर्शन के आहार, भोग्य-विषय-श्रवण, दर्शन, सूंघना प्रादि का त्याग भी है। अर्थात तप के संदर्भ में आहार का अर्थ इन्द्रियों द्वारा भोग्यसामग्री का भोग करना है और आहारत्याग का अर्थ इनके भोगों का त्याग करना है। २. ऊनोदरी-जीवनपर्यन्त अनशन नहीं किया जा सकता । शरीर और इन्द्रियों को प्राहार की आवश्यकता होती ही है । अतः जब आहार करना ही पड़े तो आहार अर्थात् भोग्य सामग्री का भोग जितना कम कर सके, उतना कम करना ऊनोदरी तप है। ३. वत्तिप्रत्याख्यान-जो भोजन करना पड़े, उसमें भी वृत्तियों का संकोच करना चाहिए अर्थात विविध प्रकार के रसों के भोग करने की वृत्तियों को त्यागना वत्तिप्रत्याख्यान है। इसका दूसरा नाम भिक्षाचरी है, जिसका अर्थ है पाहार लेने में अपना संकल्प (वत्ति) न रखना। भिक्षा में अर्थात् सहज में जो पाहार मिल जाये उसे ग्रहण करना। ४. रसपरित्याग-वृत्तियों को सीमित कर जो भोजन ले रहे हैं, उस भोजन में भी स्वाद या रस नहीं लेना, समभाव, उदासीनभाव से उसे ग्रहण करना । ५. कायाक्लेश-काया पर पाने वाले सी, गर्मी, वर्षा आदि कष्टों से अपने को न बचाना, उनसे भय न करना, उन्हें समभावपूर्वक सहन करना । ६.प्रतिसंलीनता-बाहरी विषयों में गई चित्त-वृत्ति को मोड़कर पुनः निज स्वरूप में संलीन करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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